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योगोपयोगमार्गणा : गाथा ४
मिश्र मनोयोग के स्वरूप का उक्त कथन व्यवहारनयापेक्षा समझना चाहिये । यथार्थतया तो उसका असत्य में अन्तर्भाव होता है । क्योंकि जिस रूप में वस्तु का विचार किया है, उस रूप में वह वस्तु नहीं है । '
असत्यामृषा मनोयोग - जो मन न तो सत्य हो और असत्य रूप भी नहीं हो, उसे असत्यामृषा मन कहते हैं । अर्थात् मन के द्वारा किया जाने वाला विचार सत्यरूप भी न हो, उसी प्रकार असत्यरूप भी न हो, तब वह असत्यामृषा कहलाता है और उसके द्वारा जो योग होता है, उसको असत्यामृषा मनोयोग कहते हैं ।
जब किसी विषय में विप्रतिपत्ति-विवाद उपस्थित हो, तब पदार्थ की स्थापना करने की बुद्धि से सर्वज्ञ के मतानुसार जो विकल्प किये जाते हैं जैसे कि जीव है और वह द्रव्यरूप से सत् और पर्यायरूप से असत है तो इस प्रकार का विकल्प सत्य कहलाता है । क्योंकि इस प्रकार का निर्णय करने में आराधकभाव है । लेकिन विवाद के प्रसंग में जब अपने मंतव्य को पुष्ट करने के लिए सर्वज्ञ के मत के विपरीत स्वबुद्धि से वस्तु की स्थापना करने हेतु विकल्प किये जायें, जैसे कि जीव नहीं है, अथवा एकान्त नित्य है या एकान्त अनित्य है, यह असत्य है । क्योंकि ऐसा विकल्प करने में विराधकभाव है। किन्तु इस प्रकार का स्वरूप वाला सत्य या असत्य दोनों जिसमें न हो और जो विकल्प पदार्थ के स्थापन या उत्थापन की बुद्धि के बिना ही मात्र स्वरूप का विचार करने में प्रवृत्त हो, यथा-देवदत्त घड़ा लाओ, मुझे गाय दो इत्यादि वह असत्यामृषा मन कहलाता है । क्योंकि इस प्रकार
१ व्यवहारनयमतापेक्षया चैवमुच्यते, विकल्पितार्थायोगात् ।
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२ णय सच्चमोसजुत्तो जो हु मणो सो असच्चमोसो | जो जोगो तेण हवे असच्चमोसो दु मणजोगो ॥
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परमार्थतः पुनरिदमसत्यमेव यथा - पंचसंग्रह, मलयगिरि टीका पृ. ५
- गोम्मटसार, जीवकांड गाथा २१८
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