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________________ पंचसग्रह (१) अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम स्थिति और अन्तरकरण से ऊपर की द्वितीय स्थिति ।। अन्तरकरण में के मिथ्यात्व के पुद्गलों को प्रथम और द्वितीय स्थिति में प्रक्षेप करके दूर किया जाता है और उतना वह स्थान मिथ्यात्व के पुद्गलों से पूर्णरूपेण रहित होता है । अब जब तक आत्मा प्रथम स्थिति का अनुभव करती है, वहाँ तक मिथ्यादृष्टि कहलाती है और उस प्रथम स्थिति के पूर्ण हो जाने पर अन्तरकरण-शुद्ध भूमि में प्रवेश करने से मिथ्यात्व का रस या प्रदेश द्वारा उदय नहीं होने से उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करती है। __अनिवृत्तिकरण विषयक उक्त समग्र कथन का सारांश यह है कि अनिवृत्तिकरण की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । उस स्थिति का एक भाग शेष रहने पर अन्तरकरण की क्रिया प्रारम्भ होती है। इस क्रिया के द्वारा अनिवृत्तिकरण के अन्त समय में मिथ्यात्वमोहनीय के दलिकों को आगे-पीछे कर दिया जाता है। कुछ दलिकों को अनिवृत्तिकरण के अन्त तक उदय में आने योग्य कर्मदलिकों के साथ और कुछ को अन्तर्मुहूर्त के बाद उदय में आने वाले कर्मदलिकों के साथ कर दिया जाता है कि जिससे मिथ्यात्वमोहनीय का कोई दलिक नहीं रहता है । इस कारण जिसका अबाधाकाल पूर्ण हो चुका है ऐसे मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के दो विभाग हो जाते हैं। एक विभाग वह कि जो अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त उदय में रहता है और दूसरा वह जो अनिवृत्तिकरण के बाद एक अन्तर्मुहुर्त बीतने पर उदय में आता है। इनमें से पहले विभाग को मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति और दूसरे विभाग को द्वितीय स्थिति कहते हैं । अन्तरकरण क्रिया के शुरू होने पर अनिवृत्तिकरण के अन्त तक तो मिथ्यात्व का उदय रहता है, उसके बाद नहीं रहता है। क्योंकि उस समय जिन दलिकों के उदय की सम्भावना है, वे सब दलिक अन्तरक्रिया के द्वारा आगे और पीछे उदय में आने योग्य कर दिये जाते हैं और अनिवृत्तिकरण काल के बीत जाने पर औपशमिक सम्यक्त्व होता है । इस औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर जीव को स्पष्ट एवं असंदिग्ध प्रतीति होने लगती है । क्योंकि उस समय मिथ्यात्व मोहनीय का विपाक और प्रदेश दोनों प्रकार से उदय नहीं होता है। इसी कारण जीव का स्वाभाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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