SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगोपयोगमार्गणा - अधिकार : परिशिष्ट २ कर्म से उत्पन्न हुए तीव्र रागद्वेष रूप ग्रंथि तक अभव्य भी यथाप्रवृत्तिकरण के द्वारा अनन्ती बार आता है, परन्तु इस ग्रंथि का भेदन अर्थात् आत्मा को सम्यक्त्व प्राप्त करने के अवरोधक रागद्वेष का भेदन नहीं कर पाता है । यद्यपि अभव्य जीव भी इस यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा ग्रंथिदेश पर्यन्त आते हैं और अरिहंत आदि की विभूति को देखने अथवा इसी प्रकार की विभूति प्राप्त होने की भावना से अथवा अन्य किसी दूसरे हेतु से धर्मक्रिया में प्रवृत्ति करने से श्रुतज्ञान को प्राप्त करते हैं और कुछ अधिक नौ पूर्व तक का अभ्यास भी करते हैं; किन्तु सर्वविरति, देशविरति या सम्यक्त्व या अन्य कोई आत्मिक लाभ नहीं कर पाते हैं । २६ यथाप्रवृत्तिकरण होने के बाद जिसको मोक्ष का सुख निकट है और उत्पन्न हुई वीर्य शक्ति का तीव्र वेग रोका न जा सके ऐसा कोई भव्य जीव महात्मा तीक्ष्ण तलवार की धार जैसी अपूर्वकरण रूप परम विशुद्धि के द्वारा उपर्युक्त स्वरूप वाली ग्रंथि का भेदन कर अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करता है । अर्थात् अपूर्वकरण द्वारा उस रागद्वेष की कर्कश गांठ के टूटने से जीव के परिणामों में अधिक विशुद्धि होने पर अनिवृत्तिकरण होता है । रागद्वेष की दुर्भेद्य ग्रंथि को तोड़ने में कारणभूत अपूर्वकरण भव्य जीव को बार-बार नहीं आता है, कदाचित् ही आता है और जब आता है तब ग्रंथि का भेदन और अनिवृत्तिकरण के होने पर जीव को सम्यक्त्व का लाभ होना अवश्यम्भावी है, सम्यक्त्व प्राप्त होता ही है । इसीलिये इसको अनिवृत्तिकरण कहते हैं । अनिवृत्तिकरण की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । अनिवृत्तिकरण के असंख्यात भाग जाने के बाद एक संख्यातवां भाग बाकी रहता है, तब उदय समय से लेकर उस संख्यातवें भाग जितनी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति को छोड़कर ऊपर की अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण स्थिति का एक भाग शेष रहने पर अन्तरकरण की क्रिया शुरू होती है । इस क्रिया में अन्तर्मुहूर्त काल में वेदन करने योग्य मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म के पुद्गलों का अभाव होता है । इस क्रिया के द्वारा मिथ्यात्वमोहनीय कर्म की स्थिति के दो विभाग हो जाते हैं— अन्तरकरण से नीचे की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy