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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा २३ १६६ यद्यपि ग्रंथकार आचार्य ने वचनयोगमें आठ जीवस्थान बतलाये हैं लेकिन एक दूसरी दृष्टि से विचार करने पर पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय ये पांच जीवस्थान होंगे । इसका कारण यह है कि पर्याप्त अवस्था में स्वर अथवा शब्दोचारण संभव है, उससे पूर्व नहीं तथा वचन का सम्बन्ध भाषापर्याप्ति से है । भाषापर्याप्ति एकेन्द्रियों के होती नहीं है। उनमें आदि की चार--आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास पर्याप्तियां होती हैं और द्वीन्द्रियादि में भाषापर्याप्ति होती है। जब वे स्वयोग्य पर्याप्तियां पूर्ण कर लेते हैं, तब उनमें भाषापर्याप्ति पूर्ण हो जाने से वचनयोग हो सकता है । इसीलिए वचनयोग में पर्याप्त द्वीन्द्रिय आदि पांच जीवस्थान मानना चाहिये। योगमार्गणा के भेदों में पूर्वोक्त प्रकार से जीवस्थानों को बताने के प्रसंग में यह भी जान लेना चाहिये कि केवल काययोग, वचनयोग और मनोयोग की विवक्षा होने से इस प्रकार के जीवस्थान घटित होते हैं। लेकिन सामान्यतः काययोग सभी संसारी जीवों को होने से उसमें सभी चौदह जीवस्थान पाये जायेंगे। वचनयोग में एकेन्द्रिय के चार भेदों के सिवाय दस और मनोयोग में तो संज्ञी पंचेन्द्रिय समाप्तिकाल एक मानकर अपर्याप्त द्वीन्द्रियादिक चार में भी वचनयोग और संज्ञी अपर्याप्त में मनोयोग बताया हैपूर्वसूत्रं लब्ध्यपर्याप्तकविवक्षातोनिष्ठाकाला प्राधान्याच्चोक्तम्, उत्तरसूत्रं तु करणापर्याप्तकानां पर्याप्तकवदर्शनात् क्रियाकालनिष्ठाकालयोश्च कथञ्चिदभेदादित्यविरोध इति । -पंचसंग्रह स्वोपज्ञवृत्ति, पृ. ३६ दिगम्बर साहित्य में मनोयोग में एक संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान बतलाया है-मणजोए सण्णीपज्जत्तओ दुणायव्वो । -दि० पंचसंग्रह ४/११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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