SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचसंग्रह (१) करके सामान्य से स्थावरपद में ग्रहण करके चार-चार जीवस्थान बतलाये हैं । जिनको स्थावरनामकर्म का उदय हो उन्हें स्थावर कहते हैं और इनके सिर्फ पहली स्पर्शनेन्द्रिय होती है । अतः एकेन्द्रिय में पाये जाने वाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त यह चार जीवस्थान स्थावरकाय के इन पांच भेदों में भी समझना चाहिये । १६८ ग्रंथकार आचार्य ने योगमार्गणा में जीवस्थानों का विचार परस्पर निरपेक्ष अलग-अलग योगों में किया है कि केवल काययोग में अपर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्म बादर एकेन्द्रिय रूप चार जीवस्थान पाये जाते हैं । क्योंकि एकेन्द्रिय सिर्फ काययोग वाले ही होते हैं । मनोयोगरहित वचनयोग में पर्याप्त अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय रूप आठ जीवस्थान हैं और मनोयोग में अपर्याप्तपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय ये दो जीवस्थान होते हैं । " १ यद्यपि गाथा ६ में जीवस्थानों के योगों का निर्देश करते हुए बताया है। कि पर्याप्त विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में काययोग और वचनयोग, संज्ञी पर्याप्त में सभी योग और शेष जीवों में काययोग होता है । इस प्रकार पर्याप्त चार जीवभेदों में वचनयोग, एक में मनोयोग और शेष नौ भेदों में काययोग माना है। लेकिन यहाँ काययोग में चार, वचनयोग में आठ और मनोयोग में दो जीवस्थान बतलाये हैं । इस प्रकार परस्पर विरोध है । जिसका परिहार यह है कि पूर्व में (गाथा ६ में) लब्धि - अपर्याप्त की विवक्षा करके उनके क्रिया का समाप्तिकाल न होने से उसकी गौणता मान करके लब्धि- अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि चार भेदों में वचनयोग और संज्ञी अपर्याप्त में मनोयोग की विवक्षा नहीं की है। जबकि यहाँ लब्धि - पर्याप्त की विवक्षा होने से करण - अपर्याप्त अवस्था में उन लब्धिपर्याप्त जीवों के करण पर्याप्त जीवों की तरह क्रिया का आरंभकाल और → www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy