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________________ १४२ पंचसंग्रह (१) नहीं किया जा सकता है । यहाँ नीचे के गुणस्थान की अपेक्षा अनन्तगुणी विशुद्धि होती है और ऊपर के पांचवें गुणस्थान की अपेक्षा अनन्तगुणहीन विशुद्धि होती है । ५. देशविरतगुणस्थान-जो सम्यग्दृष्टि जीव सर्वविरति की आकांक्षा होने पर भी प्रत्याख्यानावरणकषाय के उदय से हिंसादि पापक्रियाओं का सर्वथा त्याग नहीं कर सकते, किन्तु अप्रत्याख्यानावरणकषाय का उदय न होने से देशतः आंशिक त्याग करते हैं वे देशविरति कहलाते हैं। इनका स्वरूपविशेष देशविरतगुणस्थान है। देशविरति को श्रावक भी कहते हैं। इस गुणस्थानवर्ती कई श्रावक एक व्रत लेते हैं, यावत् कोई सर्व व्रतविषयक सावद्ययोग का त्याग करते हैं । इस प्रकार अधिक-अधिक व्रतों का पालन करने वाले कई श्रावक ऐसे होते हैं जो अनुमति को छोड़कर सावद्ययोग का सर्वथा त्याप करते हैं। ___ अनुमति के तीन प्रकार हैं-प्रतिसेवनानुमति, प्रतिश्रवणानुमति और संवासानुमति । अपने या दूसरे के सावद्यारंभ से किये हुए भोजन आदि का उपयोग करना प्रतिसेवनानुमति है । पुत्र आदि किसी संबंधी के द्वारा किये गये पाप कर्मों को सुनना और सुनकर भी उन कर्मों को करने से उनको नहीं रोकना प्रतिश्रवणानुमति है । पुत्र आदि अपने सम्बन्धियों को पापकार्य में प्रवृत्त होने पर भी उन पर सिर्फ ममता रखना अर्थात् न तो पापकर्म को सुनना और सुनकर भी न उसकी प्रशंसा करना संवासानुमति है । इन तीनों में से जो संवासानुमति के सिवाय सर्व पापव्यापार का त्याग करता है वह उत्कृष्ट देशविरत श्रावक कहलाता है । अर्थात् अन्य श्रावको अपेक्षा वह श्रेष्ठ होता है। ६. प्रमत्तसंयतगुणस्थान-सर्वसंयम की घातक प्रत्याख्यानावरणकषाय का उदय न होने से जो जीव तीन करण तीन योगों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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