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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १६-१८ १४१ से आता है। पहले से आने वाले के जो अरुचि थी, वह तो हट जाती है, किन्तु रुचि थी ही नहीं । चौथे से आने वाले के जो रुचि थी, वह दूर हो जाती है और अरुचि तो थी ही नहीं। इसीलिए तीसरे गुणस्थान में रुचि या अरुचि नहीं होती है। इसी का नाम अर्धविशुद्ध श्रद्धा है। इस गुणस्थान का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुर्हत है। तत्पश्चात् परिणाम के अनुसार पहले या चौथे गुणस्थान को जीव प्राप्त करता है। ४. अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान--हिंसादि सावध व्यापारों और पापजनक प्रयत्नों के त्याग को विरति कहते हैं और पाप व्यापारों एवं प्रयत्नों का त्याग न किया जाना अविरति कहलाता है । चारित्र और व्रत ये विरति के अपर नाम हैं । अतः सम्यग्दृष्टि होकर भी जो जीव किसी प्रकार के व्रत को धारण नहीं कर सकता है उसे अविरतसम्यग्दृष्टि कहते हैं और उसका स्वरूपविशेष अविरतसम्यग्दृष्टि कहलाता है । ये सम्यग्दृष्टि आत्मायें अविरति के निमित्त से होने वाले कर्मबंध के दुरंत फल को जानती हैं और यह भी जानती हैं कि मोक्षमहल में चढ़ने के लिए नसैनी के सामान विरति है, किन्तु उसको स्वीकार नहीं कर पाती हैं और न उसके पालन का प्रयत्न कर पाती हैं । इसलिए इस गुणस्थानवी जीव को अविरतसम्यग्दृष्टि कहते हैं। यद्यपि इस गुणस्थान में औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक इन तीन में से कोई एक सम्यक्त्व होने से हेयोपादेय का विवेक होता है और संसार के प्रति आसक्तिभाव भी अल्प होता है और आत्महितकारी प्रवृत्ति में उल्लास आता है, लेकिन संयमविघातक अप्रत्याख्यानावरणकषाय का उदय रहने से आंशिक संयम का भी पालन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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