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________________ १३४ पंचसंग्रह (१) कोई जीव शेष नहीं रहता है कि उसकी विशेषताओं का किसी न किसी वर्ग में ग्रहण न हो जाये । इसका कारण यह है कि आध्यात्मिक दृष्टि से सामान्यतया जीवों के दो प्रकार हैं - ( १ ) मिथ्यात्वी ( मिथ्यादृष्टि ) और ( २ ) सम्यक्त्वी ( सम्यग्दृष्टि ), अर्थात् कितने ही जीव गाढ़ अज्ञान और विपरीत बुद्धि वाले एवं तदनुकूल आचरण करने वाले हैं और कितने ही ज्ञानी, विवेकशील, प्रयोजनभूत लक्ष्य के मर्मज्ञ एवं आदर्श का अनुसरण कर जीवन व्यतीत करने वाले हैं । इनमें से अज्ञानी, विपरीत बुद्धि वाले जीवों का बोध कराने वाला पहला मिथ्यात्वगुणस्थान है और सम्यग्दृष्टि जीवों के तीन रूप हैं-(१) सम्यक्त्व से गिरते समय स्वल्प सम्यक्त्व वाले, (२) अर्ध सम्यक्त्व और अर्ध मिथ्यात्व अर्थात् मिश्र और ( ३ ) विशुद्ध सम्यक्त्व वाले किन्तु चारित्ररहित । इन तीनों में से स्वल्प सम्यक्त्व वाले जीवों के लिए दूसरा सासादनगुणस्थान, मिश्रदृष्टि वालों के लिए तीसरा मिश्रगुणस्थान और चारित्रहीन विशुद्ध सम्यक्त्वी जीवों के लिए चौथा अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान है । यह कथन तो हुआ मिथ्यात्वी और सामान्य सम्यक्त्वी जीवों की अपेक्षा से । लेकिन जो जीव सम्यक्त्व और चारित्र सहित हैं, उनके भी चारित्र की अपेक्षा दो प्रकार हैं- ( १ ) एकदेश (आंशिक) चारित पालन करने वाले और ( २ ) सम्पूर्ण चारित पालन करने वाले । ये सम्पूर्ण चारित्र का पालन करने वाले भी दो प्रकार के हैं - (१) प्रमादवश अतिचार, दोष लगाने वाले और ( २ ) प्रमाद न रहने से निरतिचार चारित्र का पालन करने वाले । एकदेश चारित्र का पालन करने वालों का दर्शक पांचवां - देशविरतगुणस्थान है । प्रमादवश संपूर्ण चारित्र के पालन में अतिचार लगाने वाले प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान वाले और निरतिचार - निर्दोष चारित्र का पालन करने वाले सातवें- अप्रमत्तसंयतगुणस्थान वाले हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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