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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १६-१८ १३३ की हैं । अतः इन असंख्य प्रकारों का सरलता से बोध कराने और उनकी मुख्य विशेषता को बताने के लिए उन असंख्य ज्ञानादि गुणों के स्वरूपविशेषों को एक-एक वर्ग में गर्भित करके गुणस्थान के चौदह भेदों की व्यवस्था की है। जिनके नाम इस प्रकार हैं (१) मिथ्यात्व, (३) सासादन, (३) सम्यमिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि), (४) अविरतसम्यग्दृष्टि, (५) देशविरत, (६) प्रमत्तविरतसंयत, (७) अप्रमत्तसंयत, (८) अपूर्वकरण, (६) अनिवृत्तिबादरसंपराय, (१०) सूक्ष्मसंपराय, (११) उपशांतकषायवीतरागछद्मस्थ, (१२) क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ, (१३) सयोगिकेवली, (१४) अयोगिकेवली ।१ इनमें प्रत्येक के साथ गुणस्थान शब्द जोड़ लेना चाहिए। जैसे मिथ्यात्वगुणस्थान इत्यादि । गुणस्थानों के इस क्रम में ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रथम मिथ्यात्वगुणस्थान में आवरक कर्मों की सघनता होने से अशुद्धि की प्रकर्षतम स्थिति है और अंतिम चौदहवें गुणस्थान में शुद्धि के परम प्रकर्ष और आत्मरणता के दर्शन होते हैं । जबकि मध्य के भेदों में आध्यात्मिक विकास की धारा को देखते हैं । पूर्व-पूर्व गुणस्थान से उत्तर-उत्तर के गुणस्थान में अपेक्षाकृत शुद्धि अधिक होने से ज्ञानादि गुण अधिक प्रमाण में शुद्ध, प्रगट होते जाते हैं और अंत में जीवमात्र के लिए प्राप्तव्य परमशुद्ध प्रकाशमान आत्मरमणरूप परमात्मभाव प्राप्त हो जाता है । यही बताना गुणस्थान-क्रमविधान का उद्देश्य है। - इस क्रमविधान में संसारी जीवों की सभी मुख्य विशेषताओं के साथ सहभावी अन्य विशेषताओं का समावेश हो जाता है। ऐसा .१ गो० जीवकांड गा० ३ और १० तथा षट्खंडागम धवलावृत्ति प्र० ख० पृ० १६०-६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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