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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ६-१२ १०६ यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि अनाहारक अवस्था में कार्मणयोग होना ही चाहिए। क्योंकि चौदहवें गुणस्थान में अनाहारक अवस्था होने पर भी किसी प्रकार का योग नहीं रहता है और यह भी नियम नहीं है कि कार्मणयोग के समय अनाहारक अवस्था अवश्य ही होती है। क्योंकि उत्पत्ति के क्षण में विग्रहगति के समय कार्मणयोग होने पर भी जीव अनाहारक नहीं है, वह कार्मणयोग के द्वारा ही आहार लेता है । लेकिन यह नियम है कि जीव की जब अनाहारक अवस्था हो तब कार्मण काययोग के सिवाय अन्य कोई योग नहीं होता है । इसी अपेक्षा से अनाहारक मार्गणा में सिर्फ कार्मण काययोग माना जाता है। देवगति और नरकगति मार्गणा में औदारिकद्विक, आहारकद्विक कुल चार योगों को छोड़कर शेष ग्यारह योग होते हैं । औदारिकद्विक, आहारकद्विक न मानने का कारण यह है कि देव व नारकों के भवस्वभाव से विरति न होने तथा विरति के अभाव में चतुर्दश पूर्व का ज्ञान न होने से आहारकद्विक योग होते ही नहीं हैं तथा देव व नारकों का भवप्रत्ययिक वैक्रिय शरीर होता है, अतएव औदारिक द्विक संभव नहीं हैं। इसीलिए देव नारकों के आहारकद्विक और औदारिकद्विक इन चार योगों के सिवाय शेष ग्यारह योग माने जाते हैं । उन ग्यारह योगों के नाम इस प्रकार हैं____ मनोयोगचतुष्क, वचनयोगचतुष्क वैक्रियद्विक, कार्मणयोग । इनमें से कार्मण अन्तरालगति और उत्पत्ति के प्रथम समय में, वैक्रियमिश्र अपर्याप्त अवस्था में तथा मनोयोगचतुष्क, वचनयोगचतुष्क और वैक्रिय काययोग पर्याप्त दशा में पाये जाते हैं।' १ दिगम्बर कार्मन थिकों का मार्गणाओं में योगसम्बन्धी कथन परिशिष्ट में देखिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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