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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ६-१२ १०५ समय में, औदारिकमिश्र उत्पत्ति के प्रथम समय के बाद अपर्याप्त अवस्था में और औदारिक काययोग पर्याप्त अवस्था में । पर्याप्त बादर वायुकायिक जीवों में से कुछ एक को वैक्रियलब्धि मानने पर जिज्ञासु का प्रश्न है प्रश्न-यह कैसे माना जाये कि किन्हीं-किन्हीं को वैक्रियलब्धि सम्भव है ? सभी बादर पर्याप्त वायुकायिक जीव वैक्रियलब्धि संपन्न हैं और सक्रिय वायुकाय के जीव बहते हैं किन्तु अवैक्रिय जीवों की वैसी प्रवृत्ति नहीं होती है।' उत्तर-यह तर्क असंगत है कि सभी बादर पर्याप्त वायुकायिक जीव वैक्रियलब्धि संपन्न होते। क्योंकि वायुकाय के अपर्याप्त-पर्याप्त, सूक्ष्म-बादर इन चार भेदों में से सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त और बादर अपर्याप्त इन तीन प्रकार के वायुकायिक जीवों में तो वैकियलब्धि होती ही नहीं है किन्तु पर्याप्त बादर वायुकायिक जीवों के संख्यातवें भाग में होती है तथा वर्तमान में विक्रिया नहीं करने पर भी स्वभावतः उनमें वैक्रियलब्धि है। विकलेन्द्रियों-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियों में वचनयोग की साधन भाषालब्धि होने से और वचनयोग में भी असत्यामृषा वचनयोग होने से कार्मण, औदारिकद्विक और असत्यामृषा वचनयोग यह चार योग होते हैं। मनोयोग, वचनयोग, मनपर्यायज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना चारित्र इन पांच मार्गणाओं में औदारिकमिश्र और कार्मण के बिना १ केई भणंति-सव्वे वेउव्विया वाया वायंति, अवेउव्वियाणं चिट्ठा चेव न पवत्तइ। -अनुयोगद्वार हरिभद्रीया टीका इसका स्पष्टीकरण पूर्व में गाथा ७ के प्रसंग में किया जा चुका है। विशेष जानकारी के लिए अनुयोगद्वार टीका व प्रज्ञापनाचूणि देखिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org|
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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