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________________ १०४ पंचसंग्रह (१) आहार ग्रहण में कारण रूप बनते हैं। किन्तु स्वयं अपने प्रथम समय में कारण रूप नहीं बन सकते हैं। क्योंकि उस समय तो वे स्वयं कार्य रूप हैं । इसलिये पहले समय में तो कार्मण काययोग द्वारा ही आहार ग्रहण होता है, जिससे आहारकमार्गणा में कार्मण काययोग भी माना जाता है । अर्थात् उत्पत्ति के प्रथम समय में कार्मण काययोग के सिवाय अन्य कोई योग न होने से कार्मण काययोग द्वारा ही आहारकत्व समझना चाहिए। एकेन्द्रियमार्गणा में मनोयोग और वचनयोग के चार-चार भेद तथा आहारकद्विक के सिवाय शेष औदारिकद्विक, वैक्रियद्विक और कार्मण यह पांच योग होते हैं । यह कथन वायुकायिक एकेन्द्रिय जीव की अपेक्षा समझना चाहिए। क्योंकि वायुकायिक जीव एकेन्द्रिय होते हैं और उनमें से कुछ एक पर्याप्त बादर वायुकायिक जीव वैक्रियलब्धि संपन्न भी होते हैं । जिससे वे वैक्रियद्विक के अधिकारी माने जाते हैं। यद्यपि पृथ्वी, जल, तेज और वनस्पतिकायिक ये चार स्थावर भी एकेन्द्रिय हैं किन्तु उनमें लब्धि नहीं होती है। जिससे उनमें एकेन्द्रिय में पाये जाने वाले पांच योगों में से वैक्रियद्विक के सिवाय शेष कार्मण और औदारिकद्विक ये तीन योग होते हैं। यदि एकेन्द्रियमार्गणा में तीन योग मानते तो वायुकायिक जीवों का समावेश नहीं हो पाता, इसलिए वायुकायिक जीवों के एकेन्द्रिय होने और उनमें वैक्रियल ब्धि की संभावना से वैक्रियद्विक को मिलाने से एकेन्द्रियमार्गणा में पांच योग माने जाते हैं। इनमें से कार्मणकाययोग विग्रहगति और उत्पत्ति के प्रथम समय में, औदारिकमिश्र काययोग उत्पत्ति के प्रथम क्षण को छोड़कर शेष अपर्याप्त अवस्था में, औदारिक योग पर्याप्त अवस्था में, वैक्रियमिश्र वैक्रिय शरीर बनाते समय और बनाने के बाद वैक्रिय काययोग होता है। शेष पृथ्वी आदि चार स्थावर एकेन्द्रियों में वैक्रियद्विक के अतिरिक्त शेष तीन योगों के होने की प्रक्रिया भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए कि कार्मण विग्रहगति और उत्पत्ति के प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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