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________________ २ पंचसंग्रह (१) नहीं होता है और शेष इक्यावन भेदों में मनोयोग पाया जाता है । लेकिन सामान्य से इनमें मनोयोग पाये जाने पर भी उत्तरभेदों की अपेक्षा कुछ अपवाद हैं । जिनको स्पष्ट किया है 'न मणो दो भेय केवलदुगंमि' अर्थात् केवलद्विक- केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दो मार्गणाओं में असत्य और सत्यासत्य यह दो मनोयोग तो नहीं होते हैं किन्तु सत्य और असत्यामृषा मनोयोग होते हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है -- जब कोई अनुत्तर विमानवासी या मनपर्यायज्ञानी अपने स्थान पर रहकर मन से ही केवली से प्रश्न पूछते हैं तब उनके प्रश्नों को केवलज्ञान द्वारा जानकर केवलज्ञानी मन से ही उनका उत्तर देते हैं, यानी मनोद्रव्य' को ग्रहण कर ऐसी रचना करते हैं कि जिससे प्रश्नकर्ता अवधिज्ञान या मनपर्यायज्ञान से जानकर केवलज्ञानी द्वारा दिये गये उत्तर को अनुमान द्वारा जान लेते हैं । मनोद्रव्य को अवधिज्ञान या मनपर्यायज्ञान द्वारा जान लेना स्वाभाविक है, क्योंकि मूर्त रूपी द्रव्य उनका विषय है । यद्यपि मनोद्रव्य अत्यन्त सूक्ष्म है, लेकिन जैसे कोई मनोवैज्ञानिक किसी के चेहरे के भावों को देखकर उसके मनोभावों का अनुमान द्वारा ज्ञान कर लेते हैं, उसी प्रकार अवधिज्ञानी और मनपर्यायज्ञानी भी मनोद्रव्य की रचना देखकर अनुमान द्वारा यह जान लेते हैं कि ऐसी मनोरचना द्वारा अमुक अर्थ का चिन्तन किया गया होना चाहिये । अब वचनयोग के भेदों का विचार करते हैं 'इगिथावरे न वाया' अर्थात् इन्द्रियमार्गणा के भेद एकेन्द्रिय में तथा काय मार्गणा के पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और वनस्पति, इन पांच स्थावर १ दिगम्बर साहित्य में भी केवलज्ञानी के द्रव्यमन का संबंध माना है | देखिये गोम्मटसार जीवकांड गाथा २२७, २२८ २ रूपिष्ववधेः । तदनन्तभागे मन:पर्ययस्स । Jain Education International - तत्वार्थ सूत्र १ २७, २८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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