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________________ पंचसंग्रह ( १ ) घट सकता है, किन्तु क्षायिक उपयोग में यह सम्भव नहीं है । बोधस्वरूप आत्मा के निरावरण होने पर दोनों क्षायिक उपयोग निरंतर होने चाहिये । केवलज्ञान और केवलदर्शन की सादि-अनन्तता युगपत् पक्ष में ही घट सकती है । क्योंकि इस पक्ष में दोनों उपयोग युगपत् और निरंतर होते रहते हैं । जिससे द्रव्यार्थिक नय से उपयोगद्वय के प्रवाह को अनंत कहा जा सकता है । सिद्धान्त में जहाँ कहीं भी केवलदर्शन और केवलज्ञान के सम्बन्ध में जो कुछ भी कहा गया है, वह सब दोनों के व्यक्तिभेद का साधक है, क्रमभावित्व का नहीं । अतः दोनों उपयोग सहभावी मानने चाहिये ।" ७८ तृतीय पक्ष उभय उपयोगों में भेद न मानकर ऐक्य मानता है । इसका प्रतिनिधित्व आचार्य सिद्धसेन दिवाकर करते हैं । इसके सम्बन्ध में उनकी युक्तियाँ हैं कि यथायोग्य सामग्री मिलने पर एक ज्ञानपर्याय में अनेक घटपटादि विषय भासित होते हैं, उसी प्रकार आवरणक्षय, विषय आदि सामग्री मिलने पर एक ही केवल उपयोग पदार्थों के सामान्य विशेष उभय स्वरूप को जान सकता है । जैसे केवलज्ञान के समय मतिज्ञानावरण आदि का अभाव होने पर भी मतिज्ञान आदि ज्ञान केवलज्ञान से अलग नहीं माने जाते, वैसे ही केवलदर्शनावरण का क्षय होने पर भी केवलदर्शन को केवलज्ञान से अलग नहीं मानना चाहिये । विषय और क्षयोपशम की विभिन्नता के कारण छाद्मस्थिक ज्ञान और दर्शन में भेद मान लें लेकिन अनन्त विषयत्व और क्षायिक भाव समान होने से केवलज्ञान, केवलदर्शन में भेद नहीं माना जा सकता है तथा केवलदर्शन को यदि केवलज्ञान से अलग माना जाये १ दिगम्बर साहित्य में इसी युगपत् उपयोगद्वय पक्ष को स्वीकार किया हैजुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा । दिणयरपयासतापं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ॥ - नियमसार १६० —— द्रव्यसंग्रह ४४ जुगवं जम्हा केवलि गाहे जुगवं तु ते दोवि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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