SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा ८ ७७ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में सभी बारह उपयोग मानने और छद्मस्थों में उनके क्रमभावी होने अर्थात् दर्शन के पश्चात ज्ञानोपयोग होने में किसी प्रकार का मतभेद नहीं है। लेकिन केवली के उपयोग सहभावी हैं या क्रमभावी, इसको लेकर तीन पक्ष हैं। प्रथम पक्ष सिद्धान्त का है। इसके समर्थक श्री भद्रबाहु स्वामी, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि हैं। सिद्धांत में ज्ञान और दर्शन का अलग-अलग कथन है तथा उनके क्रमभावित्व का वर्णन किया है। आवश्यकनियुक्ति में केवलज्ञान, केवलदर्शन दोनों के भिन्न-भिन्न लक्षण, उनके द्वारा सर्वविषयक ज्ञान और दर्शन का होना तथा युगपत् दो उपयोगों के होने का निषेध बताया है। क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन के भिन्न-भिन्न आवरण हैं। केवलज्ञान और केवलदर्शन की अनन्तता लब्धि की अपेक्षा है, उपयोग की अपेक्षा उनकी स्थिति एक समय की है। उपयोग अपने स्वभाव के कारण क्रमशः प्रवृत्त होते हैं। इसीलिए केवलज्ञान और केवलदर्शन को क्रमभावी और अलग अलग माना जाता है । द्वितीय पक्ष केवलज्ञान,केवलदर्शन को युगपत् सहभावी मानने वालों का है। इसके प्रस्तावक श्री मल्लवादी आदि तार्किक हैं। उनका मंतव्य है-आवरण-क्षयरूप निमित्त और सामान्य-विशेषात्मक विषय समकालीन होने से केवलज्ञान, केवलदर्शन युगपत् होते हैं । छामस्थिक उपयोगों में कार्यकारणभाव या परस्पर प्रतिबंध्य-प्रतिबंधकभाव (ख) उपयोगतोऽन्तर्मुहूर्तमेव जघन्योत्कृष्टाभ्याम् । -तत्त्वार्थभाष्य २/६ की टीका (ग) गोम्मटसार जीवकांड गाथा ६७४-७५ १ दंसणपुव्वं णाणं छमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा । -द्रव्यसंग्रह ४४ २ नाणम्मि दंसणम्मि य एत्तो एगयरयम्मि उवउत्ता । सव्वस्स केव लिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा ।। -आवश्यकनियुक्ति गा० ६७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy