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________________ सप्ततिका प्रकरण मोह और योग के निमित्त से ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप आत्मा के गुणों की जो तरतमरूप अवस्थाविशेष होती है, उसे गुणस्थान कहते हैं । अर्थात् गुण + स्थान से निष्पन्न शब्द गुणस्थान है और गुण का मतलब है आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुण और स्थान यानि उन गुणों की मोह के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के कारण होने वाली तरतम रूप अवस्थायें विशेष | २८ , गुणस्थान के चौदह भेद होते हैं; जिनके नाम इस प्रकार हैं१. मिथ्यात्व, २. सासादन सम्यग्दृष्टि, ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र), ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तविरत ७ अप्रमत्तविरत, ८. अपूर्वकरण, ह. अनिवृत्तिबादर, १०. सूक्ष्मसंपराय, ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३ सयोगिकेवली, १४. अयोगिकेवली । इन चौदह भेदों में आदि के बारह भेद मोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम आदि के निमित्त से होते हैं तथा तेरहवाँ सयोगिकेवली और चौदहवां अयोगिकेवली यह दो अन्तिम गुणस्थान योग के निमित्त से होते हैं । सयोगिकेवली गुणस्थान योग के सद्भाव की अपेक्षा से और अयोगिकेवली गुणस्थान योग के अभाव की अपेक्षा से होता है । उक्त चौदह गुणस्थानों में से आठ गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्ता रूप कर्मों का अलग-अलग एक-एक भंग होता है- 'अट्ठसु एगविगप्पो' | जिसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र), अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवली, अयोगिकेवली, इन आठ गुणस्थानों में बन्ध, उदय और सत्ता प्रकृतिस्थानों का एक-एक विकल्प होता है । इनमें एक -एक विकल्प होने का कारण यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादर इन तीन गुणस्थानों में आयुकर्म के योग्य अध्यवसाय नहीं होने के कारण सात प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता यह एक ही भंग होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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