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________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ : गा० ५ जीवस्थानों में भंगों का विवरण इस प्रकार समझना चाहिए काल जघन्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त यथायोग्य बंध प्रकृति उदय प्रकृति सत्ता प्रकृति Swar on ot ० 15 15 1599 x 15 15 15 15 20 जीवस्थान १४ १४ संज्ञी पर्याप्त संज्ञी पर्यात्त ار गुणस्थानों में मूलकर्मों के संवेध भांग رد Jain Education International - २७ एक समय अन्तर्मुहूर्त एक समय अन्तर्मुहूर्त 11 13 अन्तर्मुहूर्त देशोन पूर्व कोटि योगि केवली अयोगि केवली | पां चह्रस्वपांच ह्रस्व स्वरों के स्वरों के इस प्रकार से जीवस्थानों में मूल कर्मों के संवेध भंग समझना चाहिए | अब गुणस्थानों में संवेध भंगों को बतलाते हैं । उच्चारण उच्चारण कालप्रमाण कालप्रमाण अट्ठसु एगविगप्पो छस्सु वि गुणसंनिएस दुविगप्पो । पत्तेयं पत्तेयं बंधोदयसंतकम्माणं ॥ ॥५॥ | शब्दार्थ - अटठसु-आठ गुणस्थानों में, एगविगप्पो - एक विकल्प, छस्सु - छह में, वि- और, गुणसंनिएसु -- गुणस्थानों में, दुविगप्पो-दो विकल्प, पत्त े यं-पत्तेयं-प्रत्येक के, बंधोदसंतकम्माणं - बंध, उदय और सत्ता प्रकृति स्थानों के । गाथार्थ - आठ गुणस्थानों में प्रत्येक का बंध, उदय और सत्ता रूप कर्मों का एक-एक भंग होता है और छह गुणस्थानों में प्रत्येक के दो-दो भंग होते हैं । विशेषार्थ - गाथा में चौदह गुणस्थानों में पाये जाने वाले संवेध भंगों का कथन किया है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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