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________________ २४ . सप्ततिका प्रकरण द्वीन्द्रिय, ६. पर्याप्त द्वीन्द्रिय, ७. अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, ८. पर्याप्त त्रीन्द्रिय, ६. अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, १०. पर्याप्त चतुरिन्द्रिय, ११. अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, १२. पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, १३. अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय, १४. पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय । जीवस्थान के उक्त चौदह भेदों में से आदि के तेरह जीवस्थानों में दो-दो भंग होते हैं-१. सात प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता, २. आठ प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता । इन दोनों भंगों को बताने के लिए गाथा में कहा है-'सत्तट्ठबंधअठ्ठदयसंत तेरससु जीवठाणेसु' । ____इन तेरह जीवस्थानों में दो भंग इस प्रकारण होते हैं कि इन जीवों के दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय की उपशमना अथवा क्षपणा की योग्यता नहीं पाई जाती है और अधिकतर मिथ्यात्व गुणस्थान ही सम्भव है । यद्यपि इनमें से कुछ जीवस्थानों में दूसरा गुणस्थान भी हो सकता है, लेकिन उससे भंगों में अन्तर नहीं पड़ता है। उक्त दो भंग-विकल्पों में से सात प्रकृतिक बंध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता वाला पहला भंग जब आयुकर्म का बन्ध नहीं होता है तब पाया जाता है तथा आठ प्रकृतिक बन्ध, आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्ता वाला दूसरा भंग आयुकर्म के बन्ध के समय होता है । इनमें से पहले भंग का काल प्रत्येक जीवस्थान के काल के बराबर यथायोग्य समझना चाहिये और दूसरे भंग का जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, क्योंकि आयुकर्म के बन्ध का जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।1 १. सप्तविधो बन्धः अष्टविध उदयः अष्टविधा सत्ता, एष विकल्प आयुर्बन्धकाले मुक्त्वा शेषकाल सर्वदैव लभ्यते, अष्टविधो बन्धः अष्टविध उदयः अष्टविधा सत्ता, एष विकल्प आयुर्वन्धकाले, एष चान्तमौहर्तिकः, आयुर्बन्धकालस्य जघन्येनोत्कणर्षे चान्तमुहूर्तप्रमाणत्वात् ।-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ.१४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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