________________
सप्ततिका प्रकरण
इस भंग का जघन्य और उत्कृष्ट काल अयोगिकेवली गुणस्थान के समान अन्तर्मुहूर्त प्रमाण समझना चाहिए।
इस प्रकार मूल प्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्ता प्रकृतिस्थानों की अपेक्षा संवेध भंग सात होते हैं। स्वामी, काल, सहित उनका विवरण पृष्ठ २३ की तालिका में दिया गया है ।
मूल प्रकृतियों की अपेक्षा बन्ध, उदय और सत्ता प्रकृतिस्थानों के परस्पर संवेध भंगों को बतलाने के पश्चात् अब इन विकल्पों को जीवस्थानों में बतलाते हैं।
सत्तट्ठबंधअठ्ठदयसंत तेरससु जीवठाणेसु । एगम्मि पंच भंगा दो भंगा हुति केवलिणो ॥४॥
शब्दार्थ-सत्तठबंध-सात और आठ का बंध, अठ्ठदयसंतआठ का उदय, आठ की सत्ता, तेरससु-तेरह में, जीवठाणेसु-जीवस्थानों में, एगम्मि-- एक (पर्याप्त संजी) जीवस्थान में, पंचभंगापाँच भंग, दो भंगा-दो भंग, हुति-होते हैं, केवलिणो--केवली के ।
गाथार्थ-आदि के तेरह जीवस्थानों में सात प्रकृतिक और आठ प्रकृतिक बंध में आठ प्रकृतिक उदय और आठ प्रकृतिक सत्व यह दो-दो भंग होते हैं। एक-संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में आदि के पाँच भंग तथा केवलज्ञानी के अन्त के दो भंग होते हैं। विशेषार्थ-संवेध भंगों को जीवस्थानों में बतलाया है। जीवस्थान का स्वरूप और भेद चौथे कर्मग्रन्थ में बतलाये जा चुके हैं। जिनका संक्षिप्त सारांश यह है कि जीव अनन्त हैं और उनकी जातियाँ बहुत हैं, लेकिन उनका समान पर्याय रूप धर्मों के द्वारा संग्रह करने को जीवस्थान कहते हैं और उसके चौदह भेद किये हैं
१. अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, २. पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, ३. अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, ४. पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, ५. अपर्याप्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org