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षष्ठ कर्म ग्रन्थ : गा० ३
२. एक प्रकृतिक बंध, सात प्रकृतिक उदय और सात प्रकृतिक सत्ता ।
३. एक प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता । . इनमें से पहला भंग उपशान्तमोह गुणस्थान में होता है, क्योंकि वहाँ मोहनीय कर्म के बिना सात कर्मों का उदय होता है, किन्तु सत्ता आठों कर्मों की होती है । इसका काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ।
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- दूसरा भंग क्षीणमोह गुणस्थान में होता है । क्योंकि मोहनीय कर्म का समूल क्षय क्षपक सूक्ष्मसंपराय संयत के हो जाता है। जिससे क्षीणमोह गुणस्थान में उदय और सत्ता सात कर्मों की पाई जाती है । इसका काल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है ।
तीसरा भंग सयोगिकेवली गुणस्थान में होता है । क्योंकि वहाँ बंध तो सिर्फ एक वेदनीय कर्म का ही होता है किन्तु उदय और सत्ता चार अघाती कर्मों की पाई जाती है । इसका काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि प्रमाण समझना चाहिये ।
इस प्रकार उक्त तीन भंग क्रमशः ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान की प्रधानता से होते हैं ।
'एगविगप्पो अबंधम्मि' अर्थात् अबन्धदशा में सिर्फ एक ही विकल्प - भंग होता है । वह इस प्रकार समझना चाहिए कि अयोगिकेवली गुणस्थान में किसी भी कर्म का बन्ध नहीं होता है किन्तु वहाँ उदय और सत्ता चार अघाती कर्मों की पाई जाती है । इसीलिये वहाँ चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता, यह एक ही भंग होता है । "
१ 'अबन्धे' बन्धाभावे एक एव विकल्प:, तद्यथा - चतुर्विध उदयश्चतुर्विधा सत्ता, एष चायोगिकेवलिगुणस्थानके प्राप्यते, तत्र हि योगाभावाद् बन्धो न भवति, उदय-सत्ते चाघातिकर्मणां भवतः ।
- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४४
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