________________
परिशिष्ट-२
५६
श्वासोच्छ्वास काल-रोगरहित निश्चिन्त तरुण पुरुष के एक बार श्वास लेने
और त्यागने का काल । श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति-श्वासोच्छ्वासयोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर श्वासोच्छ्
वास रूप परिणत करके उनका सार ग्रहण करके उन्हें वापस छोड़ने की
जीव की शक्ति की पूर्णता। श्वासोच्छ्वासयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा---श्वासोच्छ्वासयोग्य जघन्य वर्गणा के
ऊपर एक-एक प्रदेश बढ़ते-बढ़ते जघन्य वर्गणा के स्कन्ध के प्रदेशों के अनन्तवें भाग अधिक प्रदेश वाले स्कन्धों की श्वासोच्छ्वासयोग्य उत्कृष्ट
वर्गणा होती है। श्वासोच्छवासयोग्य जघन्य वर्गणा--भाषायोग्य उत्कृष्ट वर्गणा के बाद की
उत्कृष्ट अग्रहणयोग्य वर्गणा के स्कन्धों से एक प्रदेश अधिक स्कन्धों की वर्गणा श्वासोच्छ्वासयोग्य जघन्य वर्गणा होती है ।
(स) संक्लिश्यमान सूक्ष्मसंपराय संयम-उपशमश्रोणि से गिरने वाले जीवों के दसवें
गुणस्थान की प्राप्ति के समय होने वाला संयम । संक्रमण--एक कर्म रूप में स्थित प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का अन्य
सजातीय कर्म रूप में बदल जाना अथवा वीर्यविशेष से कर्म का अपनी ही
दूसरी सजातीय कर्म प्रकृति स्वरूप को प्राप्त कर लेना। संख्या-भेदों की गणना को संख्या कहा जाता है । संख्या अनुयोगद्वार--जिस अनुयोग द्वार में विवक्षित धर्म वाले जीवों की संख्या
का विवेचन हो। संख्याताणुवर्गणा--संख्यात प्रदेशी स्कन्धों की संख्याताणुवर्गणा होती है। . संघनिन्दा-साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप संघ की निन्दा, गर्दा करने को
संघनिन्दा कहते हैं। संघात नामकर्म-जिस कर्म के उदय से प्रथम ग्रहण किये हुए शरीर पुद्गलों
पर नवीन ग्रहण किये जा रहे शरीरयोग्य पुद्गल व्यवस्थित रूप से
स्थापित किये जाते हैं। संघात श्रुत-गति आदि चौदह मार्गणाओं में से किसी एक मार्गणा का एकदेश
ज्ञान ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org