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________________ परिशिष्ट-२ ३७ दूर भव्य-जो भव्य जीव बहुत काल के बाद मोक्ष प्राप्त करने वाला है । देव-देवगति नामकर्म के उदय होने पर नाना प्रकार की बाह्य विभूति से द्वीप समुद्र आदि अनेक स्थानों पर इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं, विशिष्ट ऐश्वर्य का अनुभव करते हैं, दिव्य वस्त्राभूषणों की समृद्धि तथा अपने शरीर की साहजिक कांति से जो दीप्तमान रहते हैं वे देव कहलाते हैं। देवगति नामकर्म--जिस कर्म के उदय से जीव को ऐसी अवस्था प्राप्त हो कि जिससे 'यह देव है' ऐसा कहा जाये । बेवायु-जिसके कारण से देवगति का जीवन बिताना पड़ता है, उसे देवायु ___ कहते हैं। देशघाती प्रकृति-अपने घातने योग्य गुण का आंशिक रूप से घात करने वाली प्रकृति । देशविरति-अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न होने के कारण जो जीव देश (अंश) से पापजनक क्रियाओं से अलग हो सकते हैं वे देशविरत कहलाते हैं। देशविरत गुणस्थान--देशविरत जीवों का स्वरूप विशेष । देशविरत संयम--कर्मबंधजनक आरंभ, समारंभ से आंशिक निवृत होना, निर पराध त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा न करना देशविरति संयम है। अव्यकर्म-ज्ञानावरण आदि कर्मरूप परिणाम को प्राप्त हुए पुद्गल । वष्यप्राण-इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास । द्रव्यलेश्या-वर्ण नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए शरीर के वर्ण को द्रव्यलेश्या कहते हैं। वग्यवेव---मैथुनेच्छा की पूर्ति के योग्य नामकर्म के उदय से प्रगट बाह्य चिन्ह विशेष । द्वीन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शन और रसन यह दो इन्द्रियाँ हैं तथा द्वीन्द्रिय . जाति नामकर्म का उदय है। द्वीन्द्रियजाति नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को दो इन्द्रियाँ-शरीर (स्पर्शन) और जिह्वा (रसता) प्राप्त हों। द्वितीयस्थिति-अन्तर स्थान से ऊपर की स्थिति को कहते हैं । द्वितीयोपशम सम्यक्त्व-जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबंधी कषाय और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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