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पारिभाषिक शब्द-कोष
दंड समुद्घात--सयोगिकेवली गुणस्थानवी जीव के द्वारा पहले समय में
अपने शरीर के बाहुल्य प्रमाण आत्म प्रदेशों को ऊपर से नीचे तक लोक
पर्यन्त रचने को दंड समुद्घात कहते हैं । वर्शन--सामान्य धर्म की अपेक्षा जो पदार्थ की सत्ता का प्रतिभास होता है, उसे दर्शन कहते हैं।
सामान्य विशेषात्मक वस्तुस्वरूप में से वस्तु के सामान्य अंश के बोधरूप चेतना के व्यापार को दर्शन कहते हैं। अथवा सामान्य की
मुख्यता पूर्वक विशेष को गौण करके पदार्थ के जानने को दर्शन कहते हैं। दर्शनावरण कर्म--आत्मा के दर्शन गुण को आच्छादित करने वाला कर्म । दर्शनमोहनीय-तत्त्वार्थ श्रद्धा को दर्शन कहते हैं और उसको घात करने वाले, __आवृत करने वाले कर्म को दर्शनमोहनीय कर्म । दर्शनोपयोग-प्रत्येक वस्तु में सामान्य और विशेष यह दो प्रकार के धर्म पाये
जाते हैं, उनमें से सामान्य धर्म को ग्रहण करने वाले उपयोग को दर्शनो
पयोग कहते हैं। बानान्तराय कर्म-दान की इच्छा होने पर भी जिस कर्म के उदय से जीव में
दान देने का उत्साह नहीं होता। दीर्घकालिकी संज्ञा-उस संज्ञा को कहते हैं, जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य
काल संबंधी क्रमबद्ध ज्ञान होता है कि अमुक कार्य कर चुका हूँ, अमुक
कार्य कर रहा हूँ और अमुक कार्य करूंगा। बीपक सम्यक्त्व-जिनोक्त क्रियाओं से होने वाले लामों का समर्थन, प्रचार, प्रसार
करना दीपक सम्यक्त्व कहलाता है। दुभंग नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव उपकार करने पर भी सभी को
अप्रिय लगता हो, दूसरे जीव शत्रता एवं बैरभाव रखें । दुरभिगंध नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में लहसुन अथवा सड़े
गले पदार्थों जैसी गंध हो। दुरभिनिवेश-यथार्थ वक्ता मिलने पर भी श्रद्धा का विपरीत बना रहना । दुःस्वर नामकर्म--- जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर व वचन श्रोता को
अप्रिय व कर्कश प्रतीत हो।
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