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परिशिष्ट-२
ऊह-चौरासी लाख ऊहांग का एक ऊह होता है । ऊहांग-चौरासी लाख महा अडड का समय ।
(ए) एकस्थानिक-कर्म प्रकृति का स्वाभाविक अनुभांग-फलजनक शक्ति। .. एकान्त मिथ्यात्व-~-अनेक धर्मात्मक पदार्थों को किसी एक धर्मात्मक ही मानना
एकान्त मिथ्यात्व है। . .. एकेन्द्रिय जीव-जिनके एकेन्द्रिय जाति नामकर्म का उदय होता है और सिर्फ
एक स्पर्शन इन्द्रिय ही जिनमें पाई जाती है। एकेन्द्रिय जाति नामकर्म--जिस कर्म के उदय से जीव को सिर्फ एक इन्द्रियस्पर्शन इन्द्रिय प्राप्त हो।
(ओ) ओघबंध-किसी खास गुणस्थान या खास गति आदि की विवक्षा किये बिना ही
सब जीवों को जो बंध कहा जाता है, उसे ओघबंध या सामान्य बंध
कहते हैं। ओघसंज्ञा--अव्यक्त चेतना को ओघसंज्ञा कहा जाता है । ओजाहार-गर्भ में उत्पन्न होने के समय जो शुक्र-शोणित रूप आहार कार्मणशरीर के द्वारा लिया जाता है।
(औ) औत्पातिकी बुद्धि-जिस बुद्धि के द्वारा पहले बिना सुने, बिना जाने हुए पदार्थों
के विशुद्ध अर्थ, अभिप्राय को तत्काल ग्रहण कर लिया जाता है । औवयिक भाव-कर्मों के उदय से होने वाला भाव।। औदारिक अंगोपांग नामकर्म-जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीर रूप में
परिणत पुद्गलों से अंगोपांग रूप अवयव बनते हैं। औवारिकओवारिकबंधन नामकर्म-जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीर
पुद्गलों का औदारिक पुद्गलों के साथ सम्बन्ध हो । औवारिक काययोग-औदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीव के प्रदेशों
में परिस्पन्द के कारणभूत प्रयत्न का होना; अथवा औदारिक शरीर के वीर्य-शक्ति के व्यापार को औदारिक काययोग कहते हैं।
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