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षष्ठ कर्मग्रन्थ : गा० २
पठन-पाठन किये जाने की स्थिति में उसका लाभ शिष्य न उठा सकें और स्वयं आचार्य खेदखिन्न हो जायें । अतः वैसी स्थिति न बने और शिष्य आचार्य के व्याख्यान को यथाविधि हृदयंगम कर सकें, इसी बात को बतलाने के लिए गाथा में 'सुण' यह क्रियापद दिया गया है ।
इस प्रकार से ग्रन्थ के वर्ण्य विषय आदि का बोध कराने के पश्चात् अब ग्रन्थ प्रारम्भ करते हैं । ग्रन्थ का वर्ण्य विषय बन्ध, उदय और सत्व प्रकृतिस्थानों के संवेध रूप संक्षेप में कहना है । अतः शिष्य आचार्य के समक्ष अपनी जिज्ञासा पूर्ति के लिये प्रश्न करते हैं कि
कइ बंधतो वेयइ कइ कइ वा मूलुत्तरपाईसुं भंगविगप्पा
पयडिसंतठाणाणि । बोधव्वा ॥२॥
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शब्दार्थ — कइ – कितनी प्रकृतियों का, बंधंतो—बंध करने वाला, वेयइ — वेदन करता है, कइ कइ - कितनी - कितनी वाअथवा, पर्याडिसंतठाणाणि - प्रकृतियों का सत्तास्थान, मूलुत्तरपाईसुमूल और उत्तर प्रकृतियों के विषय में, भंगविगप्पा -भंगों के विकल्प, उ-- और, बोधव्वा - जानना चाहिये ।
गाथार्थ - कितनी प्रकृतियों का बंध करने वाले जीव के कितनी प्रकृतियों का वेदन होता है तथा कितनी प्रकृतियों का बंध और वेदन करने वाले जीव के कितनी प्रकृतियों का सत्व होता है ? तो मूल और उत्तर प्रकृतियों के विषय में अनेक भंग - विकल्प जानना चाहिए ।
विशेषार्थ - ग्रन्थ का वर्ण्य विषय बंध आदि प्रकृतिस्थानों का कथन करना है । अतः शिष्य शंका प्रस्तुत करता है कि कितनी प्रकृतियों का बंध होते समय कितनी प्रकृतियों का उदय होता है आदि । शिष्य की उक्त शंका का समाधान करते हुए आचार्य उत्तर देते हैं कि मूल और उत्तर प्रकृतियों के विषय में अनेक भंग जानना चाहिए । अर्थात् कर्मों की मूल और उत्तर प्रकृतियों में अनेक प्रकार के भंग
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