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षष्ठ कर्म ग्रन्थ : गा० १
कहते हैं। उनमें से पाँचवीं वस्तु के बीस उप-अधिकार हैं जिन्हें प्रामा कहते हैं और इनमें से चौथे प्राभूत का नाम कर्मप्रकृति है । इसी कर्मप्रकृति का आधार लेकर इस सप्ततिका प्रकरण की रचना हुई है । __उक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह प्रकरण सर्वज्ञदेव द्वारा कहे गये अर्थ का अनुसरण करने वाला होने से प्रामाणिक है। क्योंकि सर्वज्ञदेव अर्थ का उपदेश देते हैं, तदनन्तर उसकी अवधारणा करके गणधरों द्वारा वह द्वादश अंगों में निबद्ध किया जाता है । अन्य आचार्य उन बारह अंगों को साक्षात् पढ़कर या परम्परा से जानकर ग्रन्थ रचना करते हैं । यह प्रकरण भी गणधर देवों द्वारा निबद्ध सर्वज्ञ देव की वाणी के आधार से रचा गया है । _ 'सिद्धपद' का दूसरा अर्थ गुणस्थान, जीवस्थान लेने का तात्पर्य यह है कि इनका आधार लिए बिना कर्मप्रकृतियों के बंध, उदय और सत्ता का वर्णन नहीं किया जा सकता है। अतः उनका और उनमें बंध, उदय, सत्ता स्थानों एवं उनके संवेध भंगों का बोध कराने के लिए 'सिद्धपद' का अर्थ जोवस्थान और गुणस्थान भी माना जाता है।
उपर्युक्त विवेचन से यद्यपि हम यह जान लेते हैं कि इस सप्ततिका नामक प्रकरण में कर्मप्रकृति प्राभृत आदि के विषय का संक्षेप किया गया है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि इसमें अर्थगाम्भीर्य नहीं है । यद्यपि ऐसे बहुत से आख्यान, आलापक और संग्रहणी आदि ग्रंथ हैं जो संक्षिप्त होकर भी अर्थगौरव से रहित होते हैं, किन्तु यह ग्रन्थ उनमें से नहीं है । अर्थात् ग्रन्थ को संक्षिप्त अवश्य किया गया है लेकिन इस संक्षेप रूप में अर्थगांभीर्य पूर्णरूप से भरा हुआ है। विशेषताओं में किसी प्रकार को न्यूनता नहीं आई है। इसी बात का ज्ञान कराने के लिए ग्रन्थकार ने गाथा में विशेषण रूप से 'महत्थं' महार्थ पद दिया है।
ग्रन्थकार ने ग्रन्थ की विशेषताओं को बतलाने के बाद विषय का
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