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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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पूर्वोक्त नामकर्म की नो प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं तथा इनके अतिरिक्त कोई एक वेदनीय तथा उच्चगोत्र, इन दो प्रकृतियों को और मिलाने से कुल तेरह प्रकृतियां हो जाती हैं जिनका क्षय भव सिद्धिक जीव के अयोगिकेवली गुणस्थान के अंतिम समय में होता है ।
मतान्तर सहित पूर्वोक्त कथन का सारांश यह है कि मनुष्यानुपूर्वी का जब भी उदय होता है तब उसका उदय मनुष्यगति के साथ ही होता है । इस नियम के अनुसार भवसिद्धिक जीव के अंतिम समय में तेरह या तीर्थंकर प्रकृति के बिना बारह प्रकृतियों का क्षय होता है । किन्तु मनुष्यानुपूर्वी प्रकृति अयोगिकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में क्षय हो जाती है इस मतानुसार मनुष्यानुपूर्वी का अयोगिकेवली अवस्था में उदय नहीं होता है अत: उसका अयोगि अवस्था के उपान्त्य समय में क्षय हो जाता है । जो प्रकृतियां उदय वाली होती हैं उनका स्तिबूकसंक्रम नहीं होता है जिससे उनके दलिक स्व-स्वरूप से अपने-अपने उदय के अंतिम समय में दिखाई देते हैं और इसलिये उनका अंतिम समय में सत्ताविच्छेद होता है । चारों आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी प्रकृतियां हैं, उनका उदय केवल अपान्तराल गति में ही होता है । इसलिये भवस्थ जीव के उनका उदय संभव नहीं है और इसीलिये मनुष्यानुपूर्वी का अयोगि अवस्था के अंतिम समय में सत्ताविच्छेद न होकर द्विचरम समय में ही उसका सत्ता विच्छेद हो जाता है । पहले जो द्विचरम समय में सत्तावन प्रकृतियों का सत्ताविच्छेद और अंतिम समय में बारह या तीर्थंकर प्रकृति के बिना ग्यारह प्रकृतियों का सत्ताविच्छेद बतलाया है, वह इसी मत के अनुसार बतलाया है । 2
१ दिगम्बर साहित्य गो० कर्मकांड में एक इसी मत का उल्लेख है किमनुष्यानुपूर्वी की चौदहवें गुणस्थान के अंतिम समय में सत्वव्युच्छित्ति होती है
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