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________________ ४४४ सप्ततिका प्रकरण अब अन्य आचार्यों द्वारा मनुष्यानुपूर्वी की सत्ता अंतिम समय तक माने जाने के कारण को अगली गाथा में स्पष्ट करते हैं। मणुयगइसहगयाओ भवखित्तविवागजीववाग त्ति । वेयणियन्नयरच्चं च चरिम भविस्यस खीयंति ॥६६॥ शब्दार्थ--मणुयगइसहगयाओ-मनुष्यगति के साथ उदय को प्राप्त होने वाली, भवखित्तविवाग-भव और क्षेत्र विपाकी, जीववाग त्ति--जीवविपाकी, वेयणियन्नयर-अन्यतर वेदनीय (कोई एक वेदनीय कर्म), उच्चं-उच्च गोत्र, च-और, चरिम भवियस्सचरम समय में भव्य जीव के, खीयंति-क्षय होती हैं। गाथार्थ-मनुष्यगति के साथ उदय को प्राप्त होने वाली भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी प्रकृतियों का तथा किसी एक वेदनीय और उच्च गोत्र का तद्भव मोक्षगामी भव्य जीव के चरम समय में क्षय होता है । विशेषार्थ-इस गाथा में बतलाया गया है कि-'मणुयगइसहगयाओ' मनुष्यगति के साथ उदय को प्राप्त होने वाली जितनी भी भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी प्रकृतियाँ हैं तथा कोई एक वेदनीय और उच्च गोत्र, इनका अयोगिकेवली गुणस्थान के अंतिम समय में क्षय होता है। भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी का अर्थ यह है कि जो प्रकृतियां नरक आदि भव की प्रधानता से अपना फल देती हैं, वे भवविपाकी कही जाती हैं, जैसे चारों आयु । जो प्रकृतियां क्षेत्र की प्रधानता से अपना फल देती हैं वे क्षेत्रविपाकी कहलाती हैं, जैसे चारों आनुपूर्वी । जो प्रकृतियां अपना फल जीव में देती हैं उन्हें जीवविपाकी कहते हैं, जैसे पाँच ज्ञानावरण आदि । ___ यहाँ मनुष्यायु भवविपाकी है, मनुष्यानुपूर्वी क्षेत्रविपाकी और Jain Education International For Private & Personal use only. www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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