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सप्ततिका प्रकरण
अपेक्षा उनकी भी स्थिति अयोगिकेवली गुणस्थान के काल के बराबर रहती है। __सयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में निम्नलिखित तीस प्रकृतियों का विच्छेद होता है
साता या असाता में से कोई एक वेदनीय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थान, पहला संहनन, औदारिकअंगोपांग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, शुभअशुभ विहायोगति, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुस्वर और निर्माण।
सयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में उक्त तीस प्रकृतियों के उदय और उदीरणा का विच्छेद करके उसके अनन्तर समय में वे अयोगिकेवली हो जाते हैं। अयोगिकेवली गुणस्थान का काल अन्तमुहूर्त है। इस अवस्था में भव का उपकार करने वाले कर्मों का क्षय करने के लिये व्युपरतक्रियाप्रतिपाति ध्यान करते हैं। वहाँ स्थितिघात आदि कार्य नहीं होते हैं। किन्तु जिन कर्मों का उदय होता है, उनको तो अपनी स्थिति पूरी होने से अनुभव करके नष्ट कर देते हैं तथा जिन प्रकृतियों का उदय नहीं होता उनका स्तिबुकसंक्रम के द्वारा प्रति समय वेद्यमान प्रकृतियों में संक्रम करते हुए अयोगिकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय तक वेद्यमान प्रकृति रूप से वेदन करते हैं। - अब आगे की गाथा में अयोगिकेवली के उपान्त्य समय में क्षय होने वाली प्रकृतियों को बतलाते हैं।
देवगइसहगयाओ दुचरम समयभवियम्मि खीयंति । सविवागेयरनामा नीयागोयं पि तत्थेव ॥६५॥
शब्दार्थ-देवगइसहगयाओ-देवगति के साथ जिनका बंध होता है ऐसी, दुचरमसमयभवियम्मि-दो अन्तिम समय जिसके
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