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षष्ठ कर्मग्रन्थ
४२६ काल' । इनमें से जब यह जीव अश्वकर्णकरण के काल में विद्यमान रहता है तब चारों संज्वलनों की अन्तरकरण से ऊपर की स्थिति में प्रतिसमय अनन्त अपूर्व स्पर्धक करता है तथा एक समय कम दो आवलिका प्रमाणकाल में बद्ध पुरुषवेद के दलिकों को इतने ही काल में संज्वलन क्रोध में संक्रमण कर नष्ट करता है। यहां पहले गुणसंक्रम होता है और अंतिम समय में सर्वसंक्रम होता है । अश्वकर्णकरण काल के समाप्त हो जाने पर किट्टीकरणकाल में प्रवेश करता है। यद्यपि किट्टियाँ अनन्त हैं पर स्थूल रूप से वे बारह हैं, जो प्रत्येक कषाय में तीन-तीन प्राप्त होती हैं। किन्तु जो जीव मान के उदय से क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है वह उद्वलना विधि से क्रोध का क्षय करके शेष तीन कषायों की नौ किट्टी करता है। यदि माया के उदय से क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है तो क्रोध और मान का उद्वलना विधि से क्षय करके शेष दो कषायों की छह किट्टियां करता है और यदि लोभ के उदय से क्षपकश्रेणि चढ़ता है तो उद्वलना विधि से क्रोध, मान और माया इन तीन का क्षय करके लोभ की तीन किट्टियाँ करता है।
इस प्रकार किट्टीकरण के काल के समाप्त हो जाने पर क्रोध के उदय से क्षपकश्रेणि पर चढ़ा हुआ जीव क्रोध की प्रथम किट्टी की द्वितीयस्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथमस्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका प्रमाणकाल के शेष रहने तक उसका वेदन करता है । अनन्तर दूसरी किट्टी की दूसरी स्थिति में स्थित दलिक का अपकर्षण करके प्रथमस्थिति करता है
स्पर्धकों और अपूर्व स्पर्धकों में से दलिकों को ले-लेकर उनके अनुभाग को अनन्त गुणहीन करके अंतराल से स्थापित किया जाता है, उसको
किट्टीकरण कहते हैं। १ किट्टी वेदनकाल-किट्टियों के वेदन करने, अनुभव करने के काल को
किट्टीवेदनकाल कहते हैं।
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