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________________ सप्ततिका प्रकरण ४२० इससे अधिक बार नहीं । जो दो बार उपशमश्रेणि को प्राप्त होता है, उसके उस भव में क्षपकश्रेणि नहीं होती है लेकिन जो एक बार उपशमश्रेणि को प्राप्त होता है, उसके क्षपकश्रेणि होती भी है ' । गाथा में यद्यपि अनन्तानुबन्धी चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक इन सात प्रकृतियों का उपशम कहा है और उसका क्रम निर्देश किया है, परन्तु प्रसंग से यहां टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना और चारित्र मोहनीय की उपशमना का भी विवेचन किया है। इस प्रकार उपशमश्रेणि का कथन करने के बाद अब क्षपकश्रेणि के कथन करने की इच्छा से पहले क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति कहां और किस क्रम से होती है, उसका निर्देश करते हैं । पढमकसायचउक्कं एत्तो मिच्छत्तमीससम्मत्तं । अविरय देसे विरए पमत्ति अपमत्ति खीयंति ॥ ६३ ॥ शब्दार्थ - पढमकसायचउक्कं - प्रथम कषाय चतुष्क (अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क) एत्तो - तदनन्तर, इसके बाद, मिच्छत्तमीस - सम्मत्तं - मिथ्यात्व मिश्र और सम्यकत्व मोहनीय का, अविरयअविरत सम्यग्दृष्टि, देसे - देशविरत, विरए - विरत, पमत्ति अपमत्ति -प्रमत्त और अप्रमत्त, खोयंति-क्षय होता है । ---- गाथार्थ - अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत इन चार गुणस्थानों में से किसी एक J १ जो दुवे वारे उवसमसेढि पडिवज्जइ तस्स नियमा तम्मि भवे खवगसेढी नत्थि, जो एक्कसि उवसमसेढि पडिवज्जइ तस्स खवगसेढी होज्ज वा । - चूर्णि लेकिन आगम के अभिप्रायानुसार एक भव में एक बार होती है-मोहोपशम एकस्मिन् भवे द्विः स्यादसन्ततः । यस्मिन् भवे तूपशमः क्षयो मोहस्य तत्र न ॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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