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षष्ठ कर्मग्रन्थ
४१६ दर्शनावरण की चार, अंतराय की पांच, यशःकीति और उच्च गोत्र, इन सोलह प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है। इसके बाद दूसरे समय में ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्तकषाय होता है। इसमें मोहनीय की सब प्रकृतियाँ उपशांत रहती हैं। उपशांतकषाय गुणस्थान का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है।
उपशमश्रेणि के आरोहक के ग्यारहवें उपशांतमोह गुणस्थान में पहुंचने पर, इसके बाद नियम से उसका पतन होता है। पतन दो प्रकार से होता है-भवक्षय से और अद्धाक्षय से। आयु के समाप्त हो जाने पर जो पतन होता है वह भवक्षय से होने वाला पतन है । भव अर्थात् पर्याय और क्षय अर्थात् विनाश तथा उपशांतकषाय गुणस्थान के काल के समाप्त हो जाने पर जो पतन होता है वह अद्धाक्षय से होने वाला पतन है। जिसका भवक्षय से पतन होता है, उसके अनन्तर समय में अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है और उसके पहले समय में ही बन्ध आदि सब करणों का प्रारम्भ हो जाता है । किन्तु जिसका अद्धाक्षय से पतन होता है अर्थात् उपशांतमोह गुणस्थान का काल समाप्त होने के अनन्तर जो पतन होता है, वह जिस क्रम से चढ़ता है, उसी क्रम से गिरता है। इसके जहां जिस करण की व्युच्छित्ति हुई, वहाँ पहुँचने पर उस करण का प्रारम्भ होता है और यह जीव प्रमत्तसंयत गुणस्थान में जाकर रुक जाता है। कोई-कोई देशविरत और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान को भी प्राप्त होता है तथा कोई सासादन भाव को भी प्राप्त होता है।
साधारणतः एक भव में एक बार उपशमश्रेणि को प्राप्त होता है। कदाचित् कोई जीव दो बार भी उपशमश्रेणि को प्राप्त होता है,
१ सत्तावीसं सुहमे अट्ठावीसं पि मोहपयडीओ।
उवसंतवीयरागे उवसंता होंति नायव्वा ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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