________________
४१०
सप्ततिका प्रकरण देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रिय अंगोपांग, आहारक अंगोपांग, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर।
तदनन्तर स्थितिखंड-पृथक्त्व हो जाने पर अपूर्वकरण का अंतिम समय प्राप्त होता है। इसमें हास्य, रति, भय और जुगुप्सा का बंधविच्छेद, छह नोकषायों का उदयविच्छेद तथा सब कर्मों की देशोपशमना, निधत्ति और निकाचना करणों की व्युच्छित्ति होती है । इसके बाद अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश होता है।
अनिवत्तिकरण गुणस्थान में भी स्थितिघात आदि कार्य पहले के समान होते हैं। अनिवृत्तिकरण के संख्यात बहुभाग काल के बीत जाने पर चारित्रमोहनीय की २१ प्रकृतियों का अंतरकरण किया जाता है। अन्तरकरण करते समय चार संज्वलन कषायों में से जिस संज्वलन कषाय का और तीन वेदों में से जिस वेद का उदय होता है, उनकी प्रथमस्थिति को अपने-अपने उदयकाल प्रमाण स्थापित किया जाता है अन्य उन्नीस प्रकृतियों की प्रथमस्थिति को एक आवलि . प्रमाण स्थापित किया जाता है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का उदयकाल सबसे थोड़ा है। पुरुषवेद का उदयकाल इससे संख्यातगुणा है । संज्वलन क्रोध का उदयकाल इससे विशेष अधिक है। संज्वलन मान का उदयकाल इससे विशेष अधिक है। संज्वलन माया का उदयकाल इससे विशेष अधिक है और संज्वलन लोभ का उदयकाल इससे विशेष अधिक है । पंचसंग्रह में भी इसी प्रकार कहा है
थोअपुमोदयकाला संखेज्जगुणो उ पुरिसवेयस्स। तत्तो वि विसेसअहिओ कोहे तत्तो वि जहकमसो।'
१ पंचसंग्रह, ७६३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org