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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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इसी प्रकार इस जीव के मिथ्यात्व और सम्यगमिथ्यात्व की प्रथम स्थिति के दलिकों का सम्यक्त्व की प्रथमस्थिति के दलिक में स्तिबुकसंक्रम के द्वारा संक्रमण होता रहता है और सम्यक्त्व की प्रथमस्थिति का प्रत्येक दलिक उदय में आ-आकर निर्जीर्ण होता रहता है। इस प्रकार इसके सम्यक्त्व की प्रथम स्थिति के क्षीण हो जाने पर द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है।
द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के प्राप्त होने के बाद चारित्र मोहनीय की उपशमना का क्रम प्रारम्भ होता है। अत: अब चारित्र मोहनीय के उपशम के क्रम को बतलाते हैं। चारित्र मोहनीय की उपशमना
चारित्र मोहनीय का उपशम करने के लिये पुन: यथाप्रवृत्तकरण आदि तीन करण किये जाते हैं। करणों का स्वरूप तो पूर्ववत् है लेकिन इतनी विशेषता है कि यथाप्रवृत्तकरण सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में होता है, अपूर्वकरण आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में और अनिवृत्तिकरण नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में होता है। यहाँ भी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में स्थितिघात आदि पहले के समान होते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक जो अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण होते हैं, उनमें उसी प्रकृति का गुणसंक्रम होता है, जिसके सम्बन्ध में वे परिणाम होते हैं। किन्तु अपूर्वकरण में नहीं बंधने वाली सम्पूर्ण अशुभ प्रकृतियों का गुणसंक्रम होता है। अपूर्वकरण के काल में से संख्यातवाँ भाग बीत जाने पर निद्रा और प्रचला, इन दो प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है। इसके बाद जब हजारों स्थितिखंडों का घात हो लेता है, तब अपूर्वकरण का संख्यात बहुभाग काल व्यतीत होता है और एक भाग शेष रहता है। इसी बीच नामकर्म की निम्नलिखित ३० प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है
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