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षष्ठ कर्मग्रन्थ
४०७ मिथ्यादृष्टि के नियम से मिथ्यात्व का उदय होता है। इसलिये इसके गुणश्रेणि की रचना उदय समय से लेकर होती है। अपूर्वकरण के बाद अनिवृत्तिकरण में भी इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इसके संख्यात भागों के बीत जाने पर जब एक भाग शेष रह जाता है तब मिथ्यात्व के अन्तर्मुहुर्त प्रमाण नीचे के निषेकों को छोड़कर, इससे कुछ अधिक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ऊपर के निषेकों का अन्त रकरण किया जाता है। इस क्रिया में नूतन स्थितिबंध के समान अन्तर्मुहूर्त काल लगता है। यहां जिन दलिकों का अन्तरकरण किया जाता है, उनमें से कुछ को प्रथमस्थिति में और कुछ को द्वितीयस्थिति में डाल दिया जाता है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व का पर-प्रकृति रूप संक्रमण नहीं होता है। इसके प्रथमस्थिति में आवलि प्रमाण काल शेष रहने तक प्रथमस्थिति के दलिकों की उदीरणा होती है किन्तु द्वितीयस्थिति के दलिकों की उदीरणा प्रथमस्थिति में दो आवलि प्रमाणकाल शेष रहने तक ही होती है। यहाँ द्वितीय स्थिति के दलिकों की उदीरणा को आगाल कहते हैं।
इस प्रकार यह जीव प्रथमस्थिति का वेदन करता हुआ जब प्रथमस्थिति के अन्तिम स्थान स्थित दलिक का वेदन करता है, तब वह अन्तरकरण के ऊपर द्वितीयस्थिति में स्थित मिथ्यात्व के दलिकों को अनुभाग के अनुसार तीन भागों में विभक्त कर देता है। इनमें से विशुद्ध भाग को सम्यक्त्व, अर्धविशुद्ध भाग को सम्यग्मिथ्यात्व और सबसे अविशुद्ध भाग को मिथ्यात्व कहते हैं। कर्मप्रकृति चूणि में कहा भी है
चरमसमयमिच्छाद्दिट्ठी सेकाले उवसमसम्मदिट्ठी होहिइ ताहे बिईयठिई तिहाणुभागं करेइ, तंजहा-सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं मिच्छत्तं च ।
इस तरह प्रथमस्थिति के समाप्त होने पर मिथ्यात्व के दलिक का उदय नहीं होने से औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only
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