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________________ ४०० सप्ततिका प्रकरण स्थितिघात के आशय को स्पष्ट करने के बाद अब रसघात का विवेचन करते हैं। रसधात में अशुभ प्रकृतियों का सत्ता में स्थित जो अनुभाग है, उसके अनंतवें भाग प्रमाण अनुभाग को छोड़कर शेष का अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा घात किया जाता है। अनन्तर जो अनंतवाँ भाग अनुभाग शेष रहा था उसके अनंतवें भाग को छोड़कर शेष का अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा घात किया जाता है। इस प्रकार एक-एक स्थितिखण्ड के उत्कीरण काल के भीतर हजारों अनुभाग खण्ड खपा दिये जाते हैं। गुणश्रेणि का रूप यह होता है कि गुणश्रेणि में अनंतानुबंधी चतुष्क की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति को छोड़कर ऊपर की स्थिति वाले दलिकों में से प्रति समय कुछ दलिक लेकर उदयावलि के ऊपर की अन्तर्महुर्त प्रमाण स्थिति में उनका निक्षेप किया जाता है। जिसका क्रम इस प्रकार है कि पहले समय में जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं उनमें से सबसे कम दलिक उदयावलि के ऊपर पहले समय में स्थापित किये जाते हैं। इनसे असंख्यातगुणे दलिक दूसरे समय में स्थापित किये जाते हैं। इनसे असंख्यातमुणे दलिक तीसरे समय में स्थापित किये जाते हैं। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल के अन्तिम समय तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे-असंख्यातगुणे दलिकों का निक्षेप किया जाता है। यह प्रथम समय में ग्रहण किये गये दलिकों की निक्षेप विधि है । दूसरे आदि समयों में जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं, उनका निक्षेप भी इसी प्रकार होता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि गुणवेणि की रचना के पहले समय में जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं वे सबसे थोड़े होते हैं। दूसरे समय में जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं वे इनसे असंख्यातगुणे होते हैं। इसी प्रकार गुणश्रेणिकरण के अन्तिम समय के प्राप्त होने तक तृतीयादि समयों में जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं वे उत्तरोत्तर असंख्यात गुणे होते हैं। यहाँ इतनी विशेषता और है कि अपूर्वकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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