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सप्ततिका प्रकरण __दसवें गुणस्थान के अंत में ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की चार, अंतराय की पांच, यशःकीर्ति और उच्च गोत्र, इन सोलह प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है। अर्थात् दसवें गुणस्थान तक मोहनीयकर्म का उपशम. या क्षय हो जाने से अमोह दशा प्राप्त हो जाती है जिससे मोहनीयकर्म से विहीन जो उपशांतमोह, क्षीणमोह और सयोगिकेवली-ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में सिर्फ एक सातावेदनीयकर्म का बंध होता है-'सायममोहो सजोगि त्ति।'
तेरहवें सयोगिकेवलि गुणस्थान के अंत में सातावेदनीय का भी बंधविच्छेद हो जाने से चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थान में बंध के कारणों का अभाव हो जाने से किसी भी कर्म का बंध नहीं होता है। अर्थात् चौदहवाँ गुणस्थान कर्मबंध से रहित है।
यद्यपि गाथा में अयोगिकेवली गुणस्थान का निर्देश नहीं किया है तथापि गाथा में जो यह निर्देश किया है कि एक सातावेदनीय का बंध मोहरहित और सयोगिकेवली जीव करते हैं, उससे यह फलितार्थ निकलता है कि अयोगिकेवली गुणस्थान में बंध के मुख्य कारण कषाय और योग का अभाव हो जाता है और कारण के अभाव में कार्य नहीं होता है। अतः अयोगिकेवली गुणस्थान में कर्म का लेशमात्र भी बंध नहीं होता है।
इस प्रकार चार गाथाओं में किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बंध होता है और कितनी प्रकृतियों का बंध नहीं होता है इसका विचार किया गया। जिनका संक्षेप में विवरण इस प्रकार जानना चाहिये
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