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________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ ३८६ ___ गाथार्थ --अनिवृत्तिबादर गुणस्थान वाला बाईस का और उसके बाद एक-एक प्रकृति कम करते हुए अठारह प्रकृतियों का बंध करता है। सूक्ष्मसपराय वाला सत्रह प्रकृतियों को बांधता है तथा उपशांतमोह, क्षीणमोह और सयोगिकेवली गुणस्थान वाले सिर्फ एक सातावेदनीय प्रकृति का बंध करते हैं। विशेषार्थ-नौवें अनिवत्तिबादर गुणस्थान के पहले भाग में बाईस प्रकृतियों का बध होता है। इसका कारण यह है कि यद्यपि आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में २६ प्रकृतियों का बंध होता है, फिर भी उसके अंतिम समय में हास्य, रति, अरति और जुगुप्सा, इन चार प्रकृतियों का बंधविच्छेद हो जाने से नौवें गुणस्थान के पहले समय में २२ प्रकृतियों का बंध बतलाया है। इसके बाद पहले भाग के अंत में पुरुषवेद का दूसरे भाग के अंत में संज्वलन क्रोध का, तीसरे भाग के अंत में संज्वलन मान का, चौथे भाग के अंत में संज्वलन माया का विच्छेद हो जाने से पांचवें भाग में १८ प्रकृतियों का बंध होता है, अर्थात् नौवें अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के बंध की अपेक्षा पांच भाग हैं अत: प्रारंभ में तो २२ प्रकृतियों का बंध होता है और उसके बाद पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, भाग के अंत में क्रमश: एक-एक प्रकृति का बंधविच्छेद होते जाने से २१, २०, १९ और १८ प्रकृतियों का बंध होता है । इसी आशय को स्पष्ट करने के लिये गाथा में संकेत किया है.---'बावीसा एगूणं बंधइ अट्ठारसंतमनियट्टी।' लेकिन जब अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के पांचवें भाग के अंत में संज्वलन लोभ का बंधविच्छेद होता है तब दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में १७ प्रकृतियों का बंध बतलाया है-'सत्तर सुहुमसरागो'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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