________________
३७२
सप्ततिका प्रकरण
१ सत्, २ संख्या, ३ क्षेत्र, ४ स्पर्शन, ५ काल, ६ अन्तर, ७ भाव और ८ अल्पबहुत्व । इन अधिकारों का अर्थ इनके नामों से ही स्पष्ट हो जाता है। अर्थात् सत् अनुयोगद्वार में यह बताया जाता है कि विवक्षित धर्म किन मार्गणाओं में है और किन में नहीं है। संख्या अनुयोगद्वार में उस विवक्षित धर्म वाले जीवों की संख्या बतलाई जाती है। क्षेत्र अनुयोगद्वार में विवक्षित धर्म वाले जीवों का वर्तमान निवास-स्थान बतलाया जाता है। स्पर्शन अनुयोगद्वार में उन विवक्षित धर्म वाले जीवों ने जितने क्षेत्र का पहले स्पर्श किया हो, अब कर रहे हैं और आगे करेंगे उस सबका समुच्चय रूप से निर्देश किया जाता है। काल अनुयोगद्वार में विवक्षित धर्म वाले जीवों की जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति का विचार किया जाता है। अन्तर शब्द का अर्थ विग्रह या व्यवधान है अत: अन्तर अनुयोगद्वार में यह बताया जाता है कि विवक्षित धर्म का सामान्य रूप से या किस मार्गणा में कितने काल तक अन्तर रहता है या नहीं रहता है। भाव अनुयोगद्वार में उस विवक्षित धर्म के भाव का तथा अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में उसके अल्पबहुत्व का विचार किया जाता है। __यद्यपि गाथा में सिर्फ इतना संकेत किया गया है कि इसी प्रकार बंध, उदय और सत्ता रूप कर्मों का तथा उनके अवान्तर भेद-प्रभेदों का प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप से गति आदि मार्गणाओं के द्वारा आठ अनुयोगद्वारों में विवेचन कर लेना चाहिये जैसा कि पहले वर्णन किया गया है। लेकिन इस विषय में टीकाकार आचार्य मलयगिरि का वक्तव्य है कि 'यद्यपि आठों कर्मों के सत् अनुयोगद्वार का वर्णन गुणस्थानों में सामान्य रूप से पहले किया ही गया है और संख्या आदि सात अनुयोगद्वारों का व्याख्यान कर्मप्रकृति प्राभृत ग्रंथों को देखकर करना चाहिये । किन्तु कर्मप्रकृति प्राभृत आदि ग्रंथ
वर्तमान काल में उपलब्ध नहीं हैं, इसलिये इन संख्यादि अनुयोगJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org