________________
षष्ठ कर्म ग्रन्थ
३४६
तीन, पांच ग्यारह और चार सत्तास्थान हैं। जिनका विशेष स्पष्टीकरण नीचे किया जाता है ।
नरकादि गतियों में बन्धस्थान
नरकगति में दो बन्धस्थान हैं- २६ और ३० प्रकृतिक । इनमें से २६ प्रकृतिक बन्धस्थान तिर्यंचगति और मनुष्यगति प्रायोग्य दोनों प्रकार का है तथा उद्योत सहित ३० प्रकृतिक बन्धस्थान तिर्यंचगतिप्रायोग्य हैं और तीर्थंकर सहित ३० प्रकृतिक बन्धस्थान मनुष्यगति प्रायोग्य है ।
तिर्यंचगति में छह बन्धस्थान हैं - २३, २५, २६, २८, २६ और ३० प्रकृतिक | इनका स्पष्टीकरण पहले के समान यहाँ भी करना चाहिये, लेकिन इतनी विशेषता है कि यहाँ पर २६ प्रकृतिक बन्धस्थान तीर्थकर सहित और ३० प्रकृतिक बन्धस्थान आहारकद्विक सहित नहीं कहना चाहिये । क्योंकि तिर्यंचों के तीर्थंकर और आहारकद्विक का बन्ध नहीं होता है ।
मनुष्यगति के ८ बन्धस्थान हैं- २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ और १ प्रकृतिक । इनका भी स्पष्टीकरण पूर्व के समान यहाँ भी कर लेना चाहिये ।
देवगति में चार बन्धस्थान हैं - २५, २६, २६ और ३० प्रकृतिक । इनमें से २५ प्रकृतिक बन्धस्थान पर्याप्त, बादर और प्रत्येक के साथ एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बन्ध करने वाले देवों के जानना चाहिये । यहाँ स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशः कीर्ति अयशः कीर्ति के विकल्प से ८ भंग होते हैं । उक्त २५ प्रकृतिक या उद्योत प्रकृति के मिला देने पर २६ प्रकृतिक २६ प्रकृतिक बन्धस्थान के १६ भंग होते हैं । २६ प्रकृतिक बन्धस्थान मनुष्यगतिप्रायोग्य या तियंचगतिप्रायोग्य दोनों प्रकार का होता है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
-
बन्धस्थान में आतप बन्धस्थान होता है ।