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________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ ३३६ स्थान होता है। इसमें तीर्थंकर प्रकृति को मिलाने पर २६ प्रकृतिक तथा तीर्थंकर प्रकृति को अलग करके आहारकद्विक को मिलाने से ३० प्रकृतिक तथा तीर्थकर और आहारकद्विक को युगपत मिलाने पर ३१ प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इन सब बंधस्थानों का एक-एक ही भंग होता है । क्योंकि अप्रमत्तसंयत के अस्थिर, अशुभ और अयश:कीर्ति का बंध नहीं होता है।। ____सातवें गुणस्थान में दो' उदयस्थान होते हैं जो २६ और ३० प्रकृतिक हैं। जिसने पहले प्रमत्तसंयत अवस्था में आहारक या वैक्रिय समुद्घात को करने के बाद अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त किया है उसके २६ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके यहाँ दो भंग होते हैं जो एक वैक्रिय की अपेक्षा और दूसरा आहारक की अपेक्षा । ३० प्रकृतिक उदयस्थान में भी दो भंग होते हैं तथा ३० प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ अप्रमत्तसंयत जीव के भी होता है अतः उसकी अपेक्षा यहाँ १४४ भंग और होते हैं जिनका कुल जोड़ १४६ है। इस प्रकार अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के दो उदयस्थानों के कुल १४८ भंग होते हैं। १ दिगम्बर परम्परा में अप्रमत्तसंयत के ३० प्रकृतिक, एक ही उदयस्थान बत लाया है। इसका कारण यह है कि दिगम्बर परम्परा में यही एकमत पाया जाता है कि आहारक समुद्घात को करने वाले जीव को स्वयोग्य पर्याप्तियों के पूर्ण हो जाने पर भी सातवां गुणस्थान प्राप्त नहीं होता है तथा इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के अनुसार वैक्रिय समुद्घात को करने वाला जीव भी अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता है । इसीलिये गो० कर्मकांड गा ७०१ में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में एक ३० प्रकृतिक उदयस्थान ही बताया है। २ तत्रैकोनत्रिंशद् यो नाम पूर्व प्रमत्तसंयतः सन् आहारक वैक्रियं वा निर्वर्त्य पश्चादप्रमत्तभावं गच्छति तस्य प्राप्यते । -सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २३३ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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