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________________ ३०४ सप्ततिका प्रकरण होने के कारण का विचार पहले किया जा चुका है। अत: यहाँ संकेत मात्र करतें हैं कि-'तिण्णेगे'-अर्थात् पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में २८, २७ और २६ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान हैं तथा 'एगेगं' दूसरे सासादन गुणस्थान में सिर्फ एक २८ प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है । मिश्र गुणस्थान में २८, २७ और २४ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान हैं-'तिग मीसे'। इसके बाद चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक चार गुणस्थानों में से प्रत्येक में २८, २४, २३, २२ और २१ प्रकृतिक, ये पाँच-पाँच सत्तास्थान हैं। आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में २८, २४ और २१ प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान हैं। नौवें गुणस्थान-अनिवृत्तिबादर में २८, २४, २१, १३, १२, ११, ५, ४,३, २ और १ प्रकृतिक, ये ग्यारह सत्तास्थान हैं—'एक्कार बायरम्मी' । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में २८, २४, २१ और १ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान हैं तथा 'तिन्नि उवसंते' उपशांतमोह गुणस्थान में २८, २४ और २१ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार से गुणस्थानों में मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों को .. बतलाने के बाद अब प्रसंगानुसार संवेध भङ्गों का विचार करते हैं १ तिण्णे गे एगेगं दो मिस्से चदुसु पण णियट्टीए । तिणि य थूलेयारं सुहुमे चत्तारि तिण्णि उवसंते ।। ---गो० कर्मकांड गा० ५०६ मोहनीयकर्म के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ३, सासादन में १, मिश्र में २, अविरत सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में पांच-पांच, अपूर्वकरण में ३, अनिवृत्तिबादर में ११, सूक्ष्मसंपराय में ४ और उपशान्तमोह में ३ सत्तास्थान हैं। विशेष-कर्मग्रन्थ में मिश्र गुणस्थान के ३ और गो० कर्मकांड में २ सत्तास्थान बतलाये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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