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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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एक युगल, भय और जुगुप्सा । इस बंधस्थान में तीन वेद और दो युगलों की अपेक्षा छह भंग होते हैं ।
पाँच जीवस्थानों में दो बंधस्थान इस प्रकार जानना चाहिये कि पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, पर्याप्त द्वीन्द्रिय, पर्याप्त त्रीन्द्रिय, पर्याप्त चतुरिन्द्रिय और पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, इन पाँच जीवस्थानों में २२ प्रकृतिक और २१ प्रकृतिक, यह दो बंधस्थान होते हैं । बाईस प्रकृतियों का नामोल्लेख पूर्व में किया जा चुका है और उसमें से मिथ्यात्व को कम कर देने पर २१ प्रकृतिक बंधस्थान हो जाता है । इनके मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है इसलिये तो इनके २२ प्रकृतिक बंधस्थान कहा गया है तथा सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मर कर इन जीवस्थानों में भी उत्पन्न होते हैं, इसलिये इनके २१ प्रकृतिक बंधस्थान बतलाया है । इनमें से २२ प्रकृतिक बंधस्थान के ६ भंग हैं जो पहले बतलाये जा चुके हैं और २१ प्रकृतिक बंधस्थान के ४ भंग होते हैं। क्योंकि नपुंसकवेद का बंध मिथ्यात्वोदय निमित्तिक है और यहाँ मिथ्यात्व का उदय न होने से नपुंसकवेद का भी बंध न होने से शेष दो वेद - पुरुष और स्त्री तथा दो युगलों की अपेक्षा चार भंग ही संभव हैं।
अब रहा एक संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान, सो इसमें २२ प्रकृतिक आदि मोहनीय के दस बंधस्थान होते हैं। उक्त दस बंधस्थानों की प्रकृति संख्या मोहनीय कर्म के बंधस्थानों के प्रसंग में बतलाई जा चुकी है, जो वहाँ से समझ लेना चाहिये ।
अब जीवस्थानों में मोहनीय कर्म के उदयस्थान बतलाते हैं कि 'तिग चउ नव उदयगए' - आठ जीवस्थानों में तीन, पाँच जीवस्थानों में चार और एक जीवस्थान में नौ उदयस्थान हैं । पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि आठ जीवस्थानों में आठ, नौ और दस प्रकृतिक, यह
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