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________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ १६६ होते हैं किन्तु मनुष्यगति के योग्य २६ प्रकृतियों का बन्ध करने वाले मिथ्यादृष्टि नारक के तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता रहते हुए अपने पाँच उदयस्थानों में एक ८६ प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है। क्योंकि जो तीर्थकर प्रकृति सहित हो वह यदि आहारकचतुष्क रहित होगा तो ही उसका मिथ्यात्व में जाना संभव है, क्योंकि तीर्थंकर और आहारकचतुष्क इन दोनों की एक साथ सत्ता मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नहीं पाये जाने का नियम है । अतः ९३ में से आहारकचतुष्क को निकाल देने पर उस नारक के ८६ प्रकृतियों की ही सत्ता पाई जाती है। तीर्थकर प्रकृति के साथ देवगति के योग्य २६ प्रकृतियों का बंध करने वाले अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य के २१ प्रकृतियों का उदय रहते हुए ६३ और ८६ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं । इसी प्रकार २५, २६, २७, २८, २६ और ३० प्रकृतिक, इन छह उदयस्थानों में भी ये ही दो सत्तास्थान जानना चाहिये। किन्तु आहारक संयतों के अपने योग्य उदयस्थानों के रहते हुए ६३ प्रकृतिक सत्तास्थान ही समझना चाहिये। इस प्रकार सामान्य से २६ प्रकृतिक बंधस्थान में २१ प्रकृतियों के उदय में ७, चौबीस प्रकृतियों के उदय में ५, पच्चीस प्रकृतियों के उदय में ७, छब्बीस प्रकृतियों के उदय में ७, सत्ताईस प्रकृतियों के तित्थाहारा जुगवं सत्वं तित्थं ण मिच्छगादितिए । तस्सत्तकम्मियाणं तग्गुणठाणं ण संभवदि ।। -गो० कर्मकांड गा० ३३३ उक्त उद्धरण में यह बताया है कि तीर्थंकर और आहारकचतुष्क, इनका एक साथ सत्त्व मिथ्यादृष्टि जीव को नहीं पाया जाता है। लेकिन गो० कर्मकांड के सत्ता अधिकार की गाथा ३६५, ३६६ से इस बात का भी पता लगता है कि मिथ्यादृष्टि के भी तीर्थकर और आहारकचतुष्क की सत्ता एक साथ पाई जा सकती है, ऐसा भी एक मत रहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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