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________________ १८८ सप्ततिका प्रकरण सामान्य और आदेश विशेष से जहाँ जितने स्थान सम्भव हैं, उतने विकल्प करना चाहिये। विशेषार्थ-ग्रन्थ में अद्यपि नामकर्म के पहले बंधस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थान बतलाये जा चुके हैं कि नामकर्म के बंधस्थान आठ हैं, उदयस्थान बारह हैं और सत्तास्थान भी बारह हैं। फिर भी यहाँ पुनः सूचना इनके संवेध भंगों को बतलाने के लिये की गई है। इन संवेध भंगों को जानने के दो उपाय हैं--१. ओघ और २. आदेश । ओघ सामान्य का पर्यायवाची है और आदेश विशेष का। यहाँ ओघ का यह अर्थ हुआ कि जिस प्ररूपणा में केवल यह बतलाया जाए कि अमुक बंधस्थान का बंध करने वाले जीव के अमुक उदयस्थान और अमुक सत्तास्थान होते हैं, इसको ओघप्ररूपण कहते हैं। आदेश प्ररूपण में मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान और गति आदि मार्गणाओं में बंधस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थानों का विचार किया जाता है । ग्रन्थकार ने ओघ और आदेश के संकेत द्वारा यह स्पष्ट किया है कि दोनों प्रकार से बंधस्थान आदि के संवेध भंगों को यहाँ बतलाया जायेगा। अब सबसे पहले ओघ से संवेध भङ्गों का विचार करते हैं । नव पंचोदय संता तेवीसे पण्णवीस छव्वीसे । अट्ट चउरटुवीसे नव सत्तुगतोस तीसम्मि ॥३१॥ शब्दार्थ-नव पंच-नौ और पाँच, उदयसंता-उदय और सत्ता स्थान, तेवीसे--तेईस, पण्णवीस छन्वीसे-~~-पच्चीस और छब्बीस के बंधस्थान में, अट्ठ-आठ, चउर-चार, अट्ठवीसेअट्ठाईस के बंधस्थान में, नव-नी, सत्त--सात, उगतीस तीसम्मि-उनतीस और तीस प्रकृतिक बंधस्थान में । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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