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________________ सप्ततिका प्रकरण इस बंधस्थान में स्थिर और अस्थिर में से किसी एक का, शुभ और अशुभ में से किसी एक का तथा यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति में से किसी एक का बंध होता है । अतः उक्त संख्याओं को परस्पर गुणित करने पर २२x२ = ८ भंग प्राप्त होते हैं । १५४ उक्त अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान में तीर्थंकर प्रकृति को मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। तीर्थकर प्रकृति का बंध अविरत सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में होता है । जिससे यह बंधस्थान अविरत सम्यग्दृष्टि आदि जीवों के ही बनता है । यहाँ भी २८ प्रकृतिक बंधस्थान के समान ही आठ भंग होते हैं । तीस प्रकृतियों के समुदाय को तीस प्रकृतिक बंधस्थान कहते हैं । इस बंधस्थान में ग्रहण की गई प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-देवगति, देवानपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, आहारकद्विक वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलत्रु, उपघात, पराघात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुभ, स्थिर, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति और निर्माण । इसका बंधक अप्रमत्तसंयत या अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती को जानना चाहिये । इस स्थान में सब शुभ कर्मों का बंध होता है, अतः यहाँ एक ही भंग होता है । तीस प्रकृतिक बंधस्थान में एक तीर्थंकर नाम को मिला देने पर इकतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है । यहाँ भी एक ही भंग होता है । इस प्रकार देवगति के योग्य बंधस्थानों में 5+5+१+१= १८ भंग होते हैं । कहा भी है ags एक्e vera भंगा अट्ठार देवजोगेसु । १ एतच्च देवगतिप्रायोग्यं बघ्नतोऽप्रमत्तसंयतस्याऽपूर्वकरणस्य वा वेदितव्यम् । - सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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