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________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ १५३ अस्थिर में से किसी एक का, शुभ और अशुभ में से किसी एक का तथा यशःकीति और अयशःकीति में से किसी एक का बंध होने से इन सब संख्याओं को गुणित करने पर २x२x२=८ भंग प्राप्त होते हैं। अर्थात् तीस प्रकृतिक बंधस्थान के आठ भंग होते हैं। इस प्रकार मनुष्यगति के योग्य २५, २६ और ३० प्रकृतिक बंधस्थानों में कुल भंग १+४६०८+८=४६१७ होते हैं पणुवीसम्मि एक्को छायालसया अडुत्तर गुतीसे । मणुतीसेट्ठ उ सव्वे छायालसया उ सत्तरसा ॥ अर्थात् ----मनुष्यगति के योग्य पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान में एक, उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में ४६०८ और तीस प्रकृतिक बंधस्थान में ८ भंग होते हैं । ये कुल भंग ४६१७ होते हैं। अब देवगति योग्य बंधस्थानों का कथन करते हैं। देवगति के योग्य प्रकृतियों के बंधक जीवों के २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये चार बंधस्थान होते हैं। ____ अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान में-देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिर में से कोई एक, शुभ और अशुभ में से कोई एक, सुभग, आदेय, सुस्वर, यश:कीर्ति और अयश:कीर्ति में से कोई एक तथा निर्माण, इन अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध होता है। इसीलिये इनके समुदाय को एक बंधस्थान कहते हैं। यह बंधस्थान देवगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दष्टि, देशविरत और सर्वविरत जीवों को होता है। १ देवगतिप्रायोग्यं बघ्नतश्चत्वारि बन्धस्थानानि, तद्यथा--अष्टाविंशतिः एकोनविंशत् त्रिंशद् एकत्रिंशत्। -सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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