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________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ १४६ एगट अट्ठ विलिदियाण इगवण्ण तिण्हं पि । __ अर्थात्--विकलत्रयों में से प्रत्येक में बंधने वाले जो २५, २६ और ३० प्रकृतिक बंधस्थान हैं, उनमें से प्रत्येक में क्रमशः एक, आठ और आठ भंग होते हैं तथा तीनों के मिलाकर कुल इक्यावन भंग होते हैं । ____ अब तक एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के तियंचगति के बंधस्थानों का कथन किया गया। अब तिर्यंचगति पंचेन्द्रिय के योग्य बंधस्थानों को बतलाते हैं। तिर्यंचगति पंचेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बन्ध करने वाले जीव के २५, २६ और ३० प्रकृतिक, ये तीन बंधस्थान होते हैं। इनमें से २५ प्रकृतिक बंधस्थान तो वही है जो द्वीन्द्रिय के योग्य पच्चीस प्रकतिक बंधस्थान बतला आये हैं। किन्तु वहां जो द्वीन्द्रिय जाति कही है उसके स्थान पर पंचेन्द्रिय जाति कहना चाहिये । यहाँ एक भंग होता है। उनतीस प्रकृतिक वंधस्थान में उनतीस प्रकृतियां इस प्रकार हैंतिर्यचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान, छह संहननों में से कोई एक संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति में से कोई एक, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिर में से कोई एक, शुभ और अशुभ में से कोई एक, सुभग और दुर्भग में से कोई एक, सुस्वर और दुःस्वर में से कोई एक, आदेय अनादेय में से कोई एक, यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति में से कोई एक तथा निर्माण । यह बंधस्थान पर्याप्त तिर्यच पंचेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों को बांधने वाले चारों गति १ तिर्यग्गतिपंचेन्द्रियप्रायोग्यं बन्धतस्त्रीणि बंधस्थानानि, तद्यथा-पंचविंशति; एकोनविंशत् त्रिंशत् । -सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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