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सप्ततिका प्रकरण
__ उक्त पच्चीस प्रकृतियों में से अपर्याप्त को कम करके पराघात, उच्छ वास, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त और दुःस्वर, इन पाँच प्रकतियां को मिला देने पर उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। उनतीस प्रकृतियों का कथन इस प्रकार करना चाहिये-तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, द्वीन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर,
औदारिक अंगोपांग, हुंडसंस्थान, सेवार्त संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छ वास, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिर में से कोई एक, शुभ और अशुभ में से कोई एक, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, यश:कीर्ति और अयश:कीति में से कोई एक, निर्माण । ये उनतीस प्रकृतियाँ उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में होती हैं। यह बंधस्थान पर्याप्त द्वीन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों को बाँधने वाले मिथ्यादृष्टि जीव को होता है। __इस बंधस्थान में स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशःकीर्ति अयश:कीति, इन तीनों युगलों में से प्रत्येक प्रकृति का विकल्प से बंध होता है, अत: आठ भङ्ग प्राप्त होते हैं।
इन उनतीस प्रकृतियों में उद्योत प्रकृति को मिला देने पर तीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इस स्थान को भी पर्याप्त द्वीन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों को वाँधने वाला मिथ्यावृष्टि ही वांधता है। यहाँ भी आठ भङ्ग होते हैं। इस प्रकार १+८+८=१७ भङ्ग होते हैं।
त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों को बाँधने वाले मिथ्यादृष्टि जीव के भी पूर्वोक्त प्रकार से तीन-तीन बंधस्थान होते हैं। लेकिन इतनी विशेषता समझना चाहिए कि त्रीन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों में त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों में चतुरिन्द्रिय जाति कहना चाहिए । भङ्ग भी प्रत्येक के सत्रह-सत्रह हैं, अर्थात् त्रीन्द्रिय के सत्रह और चतुरिन्द्रिय के सत्रह भङ्ग होते हैं। इस प्रकार से विकलत्रिक के इक्यावन भङ्ग होते हैं। कहा भी है
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