SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ नियमा विसंजोएति । एएण कारणेण विरयाणं अनंताण बंधिविसंजोयणा भन्नति । अर्थात् जो वदक सम्यग्दृष्टि जीव चारित्र मोहनीय की उपशमना करता है, वह नियम से अनन्तानुबंधी चतुष्क की विसंयोजना करता है और इसी कारण से विरत जीवों के अनन्तानुबन्धी की विसं योजना कही गई है । आगे उसी के मूल में लिखा है आसाण वा वि गच्छेज्जा | २ अर्थात् - ऐसा जीव उपशमश्रेणि से उतर कर सासादन गुणस्थान को भी प्राप्त होता है । उक्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि कर्मप्रकृति कर्त्ता का यही मत रहा है कि अनन्तानुबंधी की विसंयोजना किये बिना उपशमश्रेणि पर आरोहण करना संभव नहीं है और वहाँ से उतरने वाला जीव सासादन गुणस्थान को भी प्राप्त करता है | पंचसंग्रह के उपशमना प्रकरण से भी कर्मप्रकृति के मत की पुष्टि होती है । लेकिन उसके संक्रमप्रकरण से इसका समर्थन नहीं होता है । वहाँ सासादन गुणस्थान में २१ में २५ का ही संक्रमण बतलाया है । 3 सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान के रहते - 'छाई नव सत्तर से' - छह १ कर्मप्रकृति चूणि उपशम. गाथा ३० २ कर्मप्रकृति उपशम. गा० ६२ १०१ ३ दिगम्बर संप्रदाय में षट्खंडागम और कषायप्राभृत की परम्परायें हैं । षट्खंडागम की परम्परा के अनुसार उपशमश्रेणि से च्युत हुआ जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता है । वीरसेन स्वामी ने धवला टीका में भगवान पुष्पदन्त भूतबलि के उपदेश का इसी रूप से उल्लेख किया है -- "भूद बलि भयवंतस्सुवएसेण उपसमसेढ़ीदो ओदिष्णो ण सासणत्तं परिवज्जदि । Jain Education International - जीव० For Private & Personal Use Only १० च० पृ० ३३१ www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy